शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) और भारतीय धार्मिक ग्रन्‍थ

      सत्‍य हमेशा स्‍पष्‍ट होता है. उसके लिए किसी तरह की दलील की ज़रूरत नहीं होती. यह बात और है कि हम उदसे न समझ पायें या कुछ लोग हमें इससे दूर रखने का कुप्रयास करें. अब यह बात छिपी नहीं रही कि वेदों, उपनिषदों और पुराणों में इस सृष्टि‍ के अन्तिम पैग़म्‍बर (संदेष्‍टा) हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के आगमन की भविष्‍यवाणियां की गयी हैं. मानवतावादी सत्‍य गवेषी विद्वानों ने ऐसे अकाट्रय प्रमाण पेश करा दिये, जिससे सत्‍य खुलकर सामने आ गया है.

     वेदों में जिस उष्‍ट्रारोही (उंट की सवारी करने वाले) महापुरूष के आने की भविष्‍यवाणी की गयी है, वे हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) ही हैं. वेदों के अनुसार उष्‍ट्रारोहीका नाम नराशंस होगा. नराशंस का अरबी अनुवाद मुहम्‍मद होता है. नराश्‍शंस के बारे में वार्णित समस्‍त क्रियाकलाप हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के आचरणों और व्‍यवहारों से चमत्‍कारिक साम्‍यता रखते हैं. पुराणों और उपनिषदों में कल्कि अवतार की चर्चा है, जो हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) ही सिद्ध होते हैं. कल्ज्कि का व्‍यक्तित्‍व और चारित्रिक विशेषताऐं अन्तिम पैग़म्‍बर हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के जीवन-चरित्र को पूरी तरह निरूपित करती हैं. यही नहीं उपनिषदों में साफ़ तौर से हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) का नाम आया है और उन्‍हें अल्‍लाह का रसूल (संदेशवाहक) बताया गया है. पुराण और उपनिषदों में यह भी वर्णित है कि ईश्‍वर एक है. उसका कोई भागीदार नहीं है. इनमें अल्‍लाह शब्‍द का उल्‍लेख कई बार किया गया है.
     इन सच्‍चाइयों के आलोक में मानवमात्र को एक सूत्र में बांधने और मानव एकता एवं आखण्‍डता को मजबूत करने के लिए सार्थक प्रयास हो सकते हैं. यह समय की मांग भी है. वैमनस्‍यता और साम्‍प्रदायिक्‍ता के इस आत्‍मघाती दौर में ये सच्‍चाइयां मील का पत्‍थर साबित हो सकती हैं. भाई-भाई को गले मिलवा सकती हैं और एक ऐसे नैतिक और सद् समाज का निर्माण कर सकती है, जहां हिंसा, शोषण, दमन और नफ़रत लेशमात्र भी न हो. इन्‍हीं उददेश्‍यों को लेकर सभी सच्‍चाइयों को एक साथ आपके समक्ष संक्षेप में प्रस्‍तुत किया जा रहा है. (विस्‍तृत अध्‍ययन के लिए सन्‍दर्भित पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया जा सकता है) उम्‍मीद है कि ये सच्‍चाइयां दिल की गहराइयों में उतर कर हम सभी को मानव कल्‍याण के लिए प्रेरित करेंगी. प्रस्‍तुत‍ आलेख में डा0 वेद प्रकाश उपाध्‍याय के शोध ग्रन्‍थों नराशंस और अन्तिम ऋषि और कल्कि अवतार और मुहम्‍मद साहब के अलावा अन्‍य स्रोतों से प्राप्‍त तथ्‍यों का समावेश किया गया है.

          नराशंस या मुहम्‍मद ः-
 
वेदों में नराशंस या मुहम्‍मद के अ.ने की भविष्‍यवाणी कोई आश्‍चर्यजनक बात नहीं है बल्कि ग्रन्‍थों में ईशदूतों (पैग़म्‍बरों) के आगमन की पूर्व सूचना मिलती रही है. यह ज़रूर चमत्‍कारिक बात है कि हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के आने की भविष्‍यवाणी जितनी अधिक धार्मिक ग्रन्‍थों में की गई है उतनी किसी अन्‍य पैग़म्‍बर के बारे में नहीं की गई. ईसाइयों, यहूदियों और बौद्धों के धार्मिक ग्रन्‍थों में हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के अन्तिम ईशदूत के रूप में आगमन की भविष्‍यवाणियां की गई हैं.
     वेदों का नराशंस शब्‍द नर औरन आशंस दो शब्‍दों से मिलकर बना है. नर का अर्थ मनुष्‍य होता है और आशंस का अर्थ मनुष्‍यों द्वारा प्रशंसित है. सायण ने नराशंस का अर्थ मनुष्‍यों द्वारा प्रशंसित बताया है. (सायण भाष्‍य, ऋग्‍वेद संहिता, 5/5/2). वेदों में ऋग्‍वेद सबसे पुराना है. उसमें नराशंस शब्‍द से शुरू होने वाले आठ मंत्र हैं. ऋग्‍वेद के प्रथम मंडल तेरहवें सुक्‍त तीसरे मंत्र और अठारहवें सूक्‍त, नवें मंत्र तथा 106वें सूक्‍त चौथे मंत्र में नराशंस का वर्णन आया है. ऋग्‍वेद के द्वितीय मंडल के तीसरे सूक्‍त, दूसरे मंत्र, सातवें मंडल के दूसरे सूक्‍त, दूसरे मंत्र, दसवें, 64वें सूक्‍त, तीसरें मंत्र और 142वें सूक्‍त दूसरें मंत्र में भी नराशंस वषियक वर्णन आये है. सामवेद संहिता के 1319वें मंत्र में और वजासनेयी संहिता के 28वें अध्‍याय के 27वें मंत्र में भी नरशंस के बारे में जिक्र आया है.
     भविष्‍य पुराण के अध्‍याय 323 के श्‍लोक 5 में स्‍पष्‍ट तौर पर कहा गया है कि एक दूसरे देश में एक आचार्य अपने मित्रों के साथ आयेंगे. उनका नाम महामद होगा. वे रेगिस्‍तानी क्षेत्र में आयेंगे. इस अध्‍याय का श्‍लोक 6,7,8 भी मुहम्‍मद साहब के वषिय में है. पैग़ग्‍बरे इस्‍लाम हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के जन्‍म स्‍थान सहित अन्‍य साम्‍यताएं कल्कि अवतार से भी मिलती हैं, जिनका वर्णन कल्कि पुराण में है.
 
कल्कि अवतार के आने का लक्षण ः-
 
     कल्कि के अवतरित होने का समय उस माहौल में बताया गया है जब कि बर्बरता का साम्राज्‍य होगा. लोगों में हिंसा व अराजकता का बोल-बाला होगा. दूसरों को मार कर उनका धन लूट लेना और लड़कियों को पैदा होते ही पृथ्‍वी में गाड़ देना. एक ईश्‍वर को छोड़कर कई देवियों-देवताओं की पूजा. पेड़-पौधों एवं पत्‍थरों को भगवान मानने की प्रवृत्ति, असमानता आदि ऐसे ही नाजुक दौर में हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) भेजे गये थे.
     दूसरी बात ध्‍यान देने की यह है कि अन्तिम अवतार उस समय होगा जबकि युद्धों में तलवार का इस्‍तेमाल होगा और घोड़ों की सवारी की जाती हो. आज से लगभग चौदह सौ वर्ष पूर्व तलवारों और घोड़ों का प्रयोग होता था. उसके लगभग सौ वर्ष बाद से बारूद का निर्माण सोडा और कोयला मिलाकर होने लगा था. वर्तमान समय में तो घोड़ों और तलवारों का स्‍थान टैंकों और मिसाइलों आदि ने ले लिया है.
 
कल्कि के अवतार का स्‍थान -
 
     कल्कि के अवतार का स्‍थान शम्‍भल ग्राम में होने का उल्‍लेख कल्कि पुराण में किया गया है. यहां पहले यह यह निश्‍चय करना आवश्‍यक है कि शम्‍भल ग्राम का नाम है या किसी ग्राम का विशेषणा डा0 वेद प्रकाश उपाध्‍याय के मतानुसार शम्‍भल किसी ग्राम का नाम नहीं हो सकता, क्‍योंकि यदि किसी ग्राम विशेष को शम्‍भल नाम दिया गया होता तो उसकी स्थिति भी बताई गई होती. भारत में खोजने पर यदि कोई शम्‍भल नाम का ग्राम मिलता है तो वहां आज से लगभग चौदह सौ वर्ष पूर्व कोई पुरूष ऐसा नहीं पैदा हुआ जोलोगों का उद्धारक हो. फिर अन्तिम अवतार कोई खेल तो नहीं है कि अवतार हो जाय और समाज में ज़रा सा परिवर्तन भी न हो, अतः शम्‍भल शब्‍द को विशेषण मानकर उसकी व्‍युत्‍पत्ति पर विचार करना आवश्‍यक है.
1-   शम्‍भल शब्‍द शम (शान्‍त करना) धातु से बना है अर्थात् जिस स्‍था में शान्ति मिले.
2-   सम् उपसर्गपूर्वक वृ धातु में अप् प्रत्‍यय के संयोग से निष्‍पन्‍न शब्‍द संवर हुआ वबयोरभेदः और रलयोरभेदः के सिद्धांत से शम्‍भल शब्‍द की निष्‍पत्ति हुई, जिसका अर्थ हुआ जो अपनी ओर लोगों को खींचता है या जिसके द्वारा किसी को चुना होता है.
3-   शम्‍वर शब्‍द का नघिण्‍टु (1/12/88) में उदकनामों के पाठ है. और में अभेद होने के कारण शम्‍भल का अर्थ होगा जल का समीपवर्ती स्‍थाना (कल्कि अवतार और मुहम्‍मद साहब पृ0 28,30)
     इस प्रकार वह स्‍थान जिसके आसपास जल हो और वह स्‍थान अत्‍यन्‍त आकर्षक एवं शान्तिदायक हो, वहीं शम्‍भल होगा. अवतार की भूमि पवित्र होती है. शम्‍भल का शाब्दिक अर्थ है( शान्ति का स्‍थाना मक्‍का को अरबी में दारूल अमन कहा जाता है, जिसका अर्थ शान्ति का घर होता है. मक्‍का मुहम्‍मद साहब का कार्यस्‍थल रहा है.
     इसके अलावा जन्‍म तिथि तथा अन्तिम अवतार की विशेषताएं- अश्‍वारोही व खडगधारी, दुश्‍मनों का दमन, चार भाईयों (सहाबा, खुलफाए राशिदीन) के सहयोग से युक्‍त, आठ सिद्धियों  व गुणों से युक्‍त आदि का अध्‍ययन करें तो यह मुहम्‍मद साहब पर बिल्‍कुल सटीक पड़ती हैं.
 
उपनिषदों में भी हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) की चर्चा
     उपनिषदों में भी हज़रत मुहम्‍मद साहब और इस्‍लाम के बारे में जहां तहां उल्‍लेख मिलता है. नागेन्‍द्र नाथ बसु द्वारा सम्‍पादित विश्‍वकोष के द्वितीय खण्‍ड में उपनिषदों के श्‍लोक के वे श्‍लोक दिये गये हैं जो इस्‍लाम और पैग़म्‍बर हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) से ताल्‍लुक़ रखते हैं. इनमें से कुछ प्रमुख श्‍लोक और उनके अर्थ प्रस्‍तुत किये जा रहे हैं ताकि पाठकों को वास्‍तविकता का पता चल सके. ‘’हरि ओउम वरूण ........ अलावृकं निखातकम  (अल्‍लोपनिषद- 1,2,3) अर्थात् इस देवता का नाम अल्‍लाह है. वह एक है. मित्रा वरूण आदि इसकी विशेषताएं हैं. वास्‍तव में अल्‍लाह वरूण है जो तमाम सृष्टि का बादशाह है. मित्रो! उस अल्‍लाह को अपना पूज्‍य समझो. वह वरूण है और एक दोस्‍त की तरह वह तमाम लोगों के काम संवारता है. वह इन्‍द्र है, श्रेष्‍ठ इंसान इन्‍द्रा अल्‍लह सबसे बड़ा सबसे बहतर, सबसे ज्‍़यादा पूर्ण और सबसे ज्‍़यादा पवित्र है. मुहम्‍म्‍द अल्‍लाह के श्रेष्‍ठतर रसूल हैं. अल्‍लह आदि अन्‍त और सारे संसार का पालनहार है. तमाम अच्‍छे काम अल्‍लाह केलिए ही हैं. वास्‍तव में अल्‍लह ही ने सूरज, चांद और सितारे पैदा किये हैं.
     इस उपनिषद के अन्‍य श्‍लोकों में भी इस्‍लाम और हज़रत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के साम्‍यगत बातें आयीं हैं इस उपनिषद में आगे कहा गया है- ‘’अल्‍ले यज्ञेन हुत्‍वा अल्‍ल सूर्य....... हां अल्‍लो रसूल मुहमद रकवसय अल्‍ले अल्‍लो इलल्‍लेति इलल्‍ला (5,6,7)
     अर्थात् अल्‍लाह ने सब ऋषि भेजे और चन्‍द्रमा, सूर्य एवं तारों को पैदा किया. उसी ने तमाम ऋषि भेजे और आकाश को पैदा किया. अल्‍लाह ने ब्राह्माण्‍ड (पृथ्‍वी और आकाश) को बनाया. अल्‍लाह श्रेष्‍ठ है, उसके सिवा कोई पूज्‍य नहीं. अल्‍लाह अनादि से है. वह सारे विश्‍व का पालनहार है. वह तमाम बुराइयों और मुसीबतों को दूर करने वाला है. मुहम्‍मद अल्‍लाह के रसूल (संदेष्‍ठा) हैं, जो इस संसार का पालनहार है. अतः घोषणा करो कि अल्‍लाह एक और उसके सिवा कोई पूज्‍य नहीं.

रविवार, 11 दिसंबर 2011

हमारा ख़ानदानी मस्‍लक बरेल्वी था - अरशद इक़बाल

 रोहड़ी के एक इलाके लोकोशेड में मेरा जन्म स्थान है, वालिद का नाम जुमा खान है। वालिद और वालिदा दोनों तरफ़ से हमारा खा़नदानी मसलक बरेल्वी था और बरेल्वी होने की वाहिद वजह (एकमात्र कारण) जहालत थी। तालीम का कोई खा़स रिवाज नहीं था, अल्बत्ता हमारे वालिदेन ने हम बहन भाइयों को मैट्रिक तक तालीम ज़रूर दिलवाई थी। नज़र व नियाज़ का हमारे हॉं खा़स अहतमाम होता था, हमारे नाना नियाज़ की किसी तारीख़ को नजर अन्दाज़ नहीं करते थे और कुछ न कुछ नियाज़ ज़रूर करते। हमारे वालिद साहब बिलखुसूस (विशेषतः) ग्यारहवी शरीफ़ की नियाज़ बड़ी धूम-धाम से करते, देगें चढ़ती थीं लोग जमा होते  और बड़ी रौनक हो जाती। हमारे घर में मजा़रों पर चादरें और नज़र बगै़रह  भी चढ़ाई जाती थी। मजा़रों और बुजुर्गों के मुताल्लिक़ बचपन से ही हमें यह अ़की़दा दिया गया था कि यह अल्लाह के हां हमारा वसीला हैं। हम तो गुनाहगार लोग है।, बराहे रास्त हमारी बात अल्लाह के नज़दीक वह मुका़म हासलि नहीं करती जो बुजुर्गों की करती है। इसलिए बुजुर्गों के वसीले से ही जो हाजात (ज़रूरतें) अल्लाह के सामने पहुंचती हैं वह जल्दी पूरी हो जाती हैं।
 अगर्चे मैं चादरें बगैरह चढ़ाने वालों को और मजा़रों पर जाकर नज़र व नियाज़ करने वालों को बुरा नहीं समझता था लेकिन कुदरती तौर पर बचपन से आज तक कभी भी मेरा झुकाव इस ओर नहीं हुआ था, घर वाले मजा़रों पर जाते लेकिन मैं कभी नहीं गया, मुझे याद है एक मर्तबा तमाम घर वाले लाल शहबाज़ क़लन्द के मजा़र उनके उर्स में षिर्कत के लिये जा रहे थे, हालांकि एक तफ़रीह का मौका़ भी था लेकिन उस वक्त भी मैंने मजा़र पर जाने के बजाय घर में रहने को तरजीह दी।
 अगर्चे हमारे घर में नमाज़ बगै़रह की पाबन्दी नही थी लेकिन बचपन से ही मज़हब की जानिब मेरा झुकाव था, अगर्चे मुस्तक़िल मिजाजी़ नहीं थी, ईमान घटता और बढ़ता रहता था, कभी बाका़यदी से पांच वक्त की नमाज़ें शुरू हो जाती थीं और कभी कई कई दिन हो जाते नमाज़ पढ़े हुए, नमाज़ के मामले में मुस्तक़िल मिजाजी़ तक़रीबन नौ दस साल पहले हासिल हुई जब मैंने यह अ़हद किया कि या अल्लाह मुझे सरकारी नौकरी मिल गई तो फिर कोई नमाज़ नहीं छोडूंगा और ऐसा ही हुआ, अल्हम्दु लिल्लाह जब से सरकारी मुलाज़िमत मिली उसके बाद से आज तक मुस्तक़िल मिजाजी से नमाजें पढ़ रहा हूं .

वहाबियों से मुताल्लिक़ मेरे नज़रियात

 वहाबियों से मुताल्लिक़ मुझे कोई खा़स मालूमात नहीं थीं, बस इतना सुन रखा था कि यह काफ़िर होते हैं, नज़र व नियाज़ को नहीं मानते, औलिया-अल्लाह के गुस्ताख़ हैं, रसूलुल्लाह पर दरूद व सलाम नहीं पढ़ते, यह सब गुस्ताख़े रसूल हैं। बस जो कुछ सुना उस पर यक़ीन कर लिया था, कभी तहकी़क की ज़हमत गवारा नहीं की थी। अगर्चे इलाके़ में अहले हदीस की मस्जिद मौजूद थी लेकिन मेरा कभी किसी अहले हदीस से वास्ता नहीं पड़ा था।
 आ़मिर भाई हमारे क़रीबी दोस्तों से थे, क्रिकेट के अ़लावा भी हमारे दरमियान काफ़ी हम-आहंगी थी। मज़हबी सरगर्मियों में भी वह हमारे साथ ही होते थे। बल्कि वह मस्जिद के मामलात में मुझसे ज़्यादा सरगर्म रहते थे। एक रोज़ में अहले हदीस मसिजद के सामने से गुज़र रहा था, मस्जिद के साथ ही मुहम्मदी लाइब्रेरी थी, जिसमें किताबों के अलावा अहले हदीस उलेमा की तक़रीरों की कैसिटें भी मिलती थीं। मेरी नज़र अचानक उसमें बैठे हुए एक नौजवान पर पड़ी शकल तो बहूत मानूस (जानी-पहचानी) है। आ़मिर भाई हैं? नहीं वह यहां कैसे हो सकते हैं, मैं मुंह ही मुंह में बड़बड़ाया, जबक मैंने थोड़ा सा क़रीब होकर गौ़र किया तो मालूम हुआ कि वह वाक़ई आ़मिर भाई हैं। मैं बड़ा हैरान हुआ कि वह वहाबियों की लाइब्रेरी में कैसे पहुंच गये? मुझे फ़िक्र ने आ घेरा। कहीं यह वहाबियों के चंगुल में तो नहीं फंस गये? वैसे भी सुन रखा था कि वहाबी आदमी को बहुत जल्द अपना लेते हैं। उनकी दलीलों को कोई जवाब नहीं होता। हमें आ़मिर भाई को वहां बैठे देखने पर तशवीश हुई कि हम यह भी सुनते आये थे कि वहाबियों की सोहबत में बैठने से ईमान ख़राब हो जाता है। दोस्त से हमारी मुहब्बत जागी दोस्ती का तका़जा़ यह ठहरा कि आ़मिर भाई को वहाबियों के चंगुल से फंसने से बचाया जाय। मैंने सोचा यह ज़रा बाहर आ जाय फिर मामले की तहकी़क करके उसे समझाते हैं। हर रोज़ शाम को मग़रिब और इषा के बाद आ़मिर भाई के घर के सामने हमारी बैठक होती थी। उस रोज़ जब वह वहां आये तो मैंने झट सवालात की झड़ी लगा दी। वहाबियों की लाइब्रेरी में क्यों गये थे? क्या काम था? क्या ज़रूरत पेश आ गई थी? तुम्हें मालूम नहीं है कि वहाबियों की सोहबत में बैठने से ईमान कमजो़र हो जाता है, यह जानते-बूझते उनकी मस्जिद में क्यों गये? मेरे इन तमाम सवालों का आ़मिर भाई ने एक ही जवाब दिया जो चंद लम्हों  के लिये मुझ पर बड़ा गिरां गुज़रा। कहने लगे अरशद भाई मैं वहाबी हो गया हूं। वहाबी.......मेरा मुंह खुला का खुला रह गया, ऐसा लगा कि गोया मेरे सामने  दुनिया का आठवां अजूबा पेश कर दिया गया है और मैं उसे देख कर हैरान हो रहा हूं। मैं अभी हैरानगी की के आलम में ही था कि मुझ पर अल्लाह का करम हुआ और अल्लाह तआ़ला ने मेरे ज़हन में मसबत नुक्ता नजर (सकारात्मक दृष्टिकोण) डाला। मैंने सोचा कि आ़मिर भाई पढ़े लिखे ज़हीन और बा-शऊर  नौजवान हैं यह अगर वहाबी हुए हैं तो ज़रूर कोई न कोई बात है। मसलक अहले हदीस में ज़रूर कोई ऐसी सच्चाई है जो पढ़े लिखे और बा-शऊर लोगों को अपनी जानिब खींच लेती है। मैंने आ़मिर भाई को समझाने की नीयत कर रखी थी लेकिन हाल यह हो गया कि उल्टा वह मुझे समझा रहे थे और सहर ज़दा शख़्स की तरह बिला चूं व चिरां उनकी गुफ़्तगू सुन रहा था। इस गुफ़्तगू में उनकी एक बात ज़हन में बैठी, उन्होंने कहा कि किसी की न मानो न वहाबियों की मानों और न अपने मौलवियों की खुद कुरआन मजीद का तर्जुमा पढ़ कर देख लो कि किसका मसलक सही है और कुरआन के मुताबिक़ है। दूसरी बात जो उन्होंने मेरे ज़हन में बिठाने की कोशिश की वह हदीस और फ़िक्ह का फ़र्क़ था। और शायद बाद में मैं इसी बुनियाद पर अहले हदीस हुआ, उन्होंने कहा कि हमने मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) का कलिमा पढ़ा है किसी इमाम का कलिमा नहीं पढ़ा। हम सिर्फ़ अल्लाह और उसके रसूल की इता़अ़त के पाबन्द हैं किसी इमाम की फ़िक्ह के मुता़बिक़ नहीं। उन्होंने बताया कि हम हनफी़ कहलाते हैं, क्योंकि हम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैहि) की तक़लीद करते हैं और हमारे मौलवी कहते हैं कि हम हक़ पर हैं, अगर सिर्फ़ हम यानी इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैहि) की तक़लीद करने वाले ही हक़ पर हैं तो इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैहि) से पहले जो मुसलमान गुज़रे जिनमें खुद सहाबा किराम जैसी मुक़द्दस हस्तियां भी षामिल थीं, क्या वह सब नाहक पर थे? उन्होंने किस इमाम की पैरवी की थी। उन्होंने किसी की फ़िक्ह पर नहीं बल्कि सिर्फ़ उन ही बातों पर अ़मल किया था जो अल्लाह और रसूल की बातें थीं, यानी कुरआन व हदीस पर। यह सारे दलाइल (दलीलें) ऐसे थे जिन पर गै़र जानिबदाराना (निष्पक्ष रूप से) गौ़र किया जाय तो हर बा-शऊर आदमी को अपील करते हैं। मैं भी इन दलाइल से काफ़ी मुतास्सिर हुआ। लेकिन इतनी आसानी से वहाबी हो जाना तो हमारी शान के खि़लाफ़ था।

 तर्जुमा पढ़ते हुए वहाबियों के खि़लाफ़ तो कोई दलील न मिली अल्बत्ता अपने मसलक के खिलाफ़ दलाइल मिलते रहे
 कई रोज़ तक इसी तरह उनके साथ गुफ़्तगू चलती रही और मेरा ज़हन तैयार होता रहा, लेकिन बाप दादा का मसलक छोड़ना इतना आसान नहीं होता, इसके लिये अपनी अनाकी कुरबानी देनी पड़ती है और अपने बाप दादा को ग़लत कहना पड़ता है और यह सब कुछ उसी वक्त होता है जब हक़ पूरी तरह दिल व दिमाग़ को मुसख्ख़र कर ले। इसके लिए बहरहाल कुछ न कुछ वक्त लगता ही है। आ़मिर भई की तरगी़ब पर मैंने कुरआन मजीद का तर्जुमा पढ़ने की ठानी और इस नीयत के साथ तर्जुमा पढ़ना षुरू किया कि इसमें से वहाबियों के खि़लाफ़ दलाइल मिलते रहे बल्कि ऐसा लग रहा था कि पूरा कुरआन ही हमारे मसलक के खि़लाफ़ है। कुरआन के तो हर सफ़्हे पर तौहीद के दलाइल हैं जबकि हम जिस मस्‍लक पर कारबन्द थे वह तो शिर्क से आलूदा था।

मेरा ज़मीर मुझे मलामत करने लगा कि हक़ समझने के बाद भी क्या हक़ कुबूल नहीं करेगा
 कुरआन के तर्जुमे ने मेरा दिल व दिमाग़ में बसी अ़का़इद की दुनिया को तहस नहस करके रख दिया था। तौहीद मेरी समझ में आ रही थी और जब तौहीद समझ में आ जाय तो शिर्क कैसे बरक़रार रह सकता है। एक जानिब कुरआन मजीद के तर्जुमे के असरात दूसरी तरफ़ आ़मिर भाई से फ़िक्ह और हदीस और नमाज़ व दीगर मसाइल पर मुसलसल गुफ़्तगू, यूं मैं चारों तरफ़ से जकड़ा गया, मेरा ज़मीर मुझे मलामत करने लगा, हक़ समझने के बाद भी क्या हक़ कुबूल नहीं करेगा? अब मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि मैं अपनी शिकस्त तस्लीम कर लूं और हक़ को अपने पर फ़तह दे दूं। नहीं........ अगर मैं वहाबी हो गया तो घर वाले क्या सोचेंगे। वालिद साहब सख़्त आदमी हैं वह  तो मुझे घर से बाहर निकाल देंगे.......खा़नदान वाले मुझे बदनाम कर देंगे दोस्त अहबाब क्या सोचेंगे। अरशद वहाबी हो गया........इस तरह के वस्वसे मेरे मन में सिर उठा रहे थे और कुबूल हक़ की राह में मुजा़हिम (रोक) बन रहे थे। लेकिन आखि़र मैंने इन तमाम षैतानी वस्वसों को शिकस्त दी और मसलक हक्क्हू-मसलक अहले हदीस कुबूल करने का पुख़्ता अ़ज़म (इरादा) कर लिया। घर और बाहर हर एक को बता दिया कि मैं वहाबी हो गया हूं।
अहले हदीस होने के बाद क्या गुज़री ?


घर और खा़नदान में हर जगह मुझे मुखा़लिफ़त का सामना करना पड़ा। वालिद साहब तो कट्टर बरेल्वी अ़की़दा रखते थे और हर साल बड़े अहतमाम के साथ ग्यारहबी शरीफ़ की नियाज़ दिलाते थे उन्हें मेरा मसलक अहले हदीस कुबूल करना सख़्त नागवार गुज़रा, पहले पहल तो उन्होंने मुझे आराम से समझाने की कोशिश की, कहने लगे कि ‘‘बेटा! अभी तुमने दुनिया नहीं देखी तुम्हारा इल्म महदूद (सीमित) है। अभी तुम मज़हबी मामलात को नहीं समझ सकते, इसलिए वापिस अपने मस्‍लक पर आ जाओ जबकि मैं उनसे कहता कि आप कोई दलील तो दें कि जी यह बात वहाबियों की कुरआ़न व हदीस के ख़िलाफ़ है इसलिए ग़लत है।’’ वालिद साहब दलाइल दिये बगै़र मिन्नत समाजत करते बल्कि यहां तक भी कहने लगे कि तुम अपने मस्‍लक पर वापिस आ जाओ अगर तुम्हारे गुनाह होंगे तो आखि़रत के दिन मैं उन गुनाहों को अपने सिर ले लूंगा।
 जैसे-जैसे खा़नदान वालों ने वालिद साहब को ता़ने देना शुरू किये, वैसे-वैसे उनकी मुखा़लिफ़त में इजा़फ़ा होता गया। यहां तक कि एक रोज़ उन्होंने मुझे घर से निकालने की धमकी दे डाली इस पर भी मैं साबित क़दम रहा और कह दिया जो दिल चाहे कर लो जिस मस्‍लक को मैंने कुरआन व हदीस के दलाइल से दुरूस्त समझा है उसे नहीं छोड़ सकता। वालिद साहब को मुझसे नफ़रत हो गयी थी, घर में मेरा वजूद उन्हें बर्दाष्त नहीं होता था वह समझते थे कि मैंने पूरे खा़नदान में उनकी नाक कटा दी।

वालिद साहब बरेल्वी मस्जिद के मौलवी साहब के पास ले गये
इब्तिदाई दिनों में जब वालिद साहब मुझसे ना उम्मीद नहीं हुए थे और अपने तईं मेरी इस्लाह की कोषिषों में मसरूफ़ थे तो एक रोज़ नाना के साथ मिल कर इलाक़े की बरेल्वी मस्जिद के मौलवी साहब के पास भी ले कर गये कि शायद वह इसे समझा देंगे मौलवी साहब से कहा, यह वहाबी हो गया है कहता है ग्यारहवीं शरीफ़ करना जाइज़ नहीं है। मौलवी साहब मेरी तरफ़ मुखा़तिब होकर कहने लगे किस तरह जाइज़ नहीं है, मैंने कहा कि कुरआन ने गैर-अल्लाह की नज़र व नियाज़ हराम कर दी है। कुरआन में अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया है किः ‘‘ ‘‘ ‘‘कि बेशक तुम पर हराम कर दिया गया है मुर्दार (बहता लहू, खिंजी़र का गोश्‍त और वह नियाज़ जिसे गैर-अल्लाह के साथ मंसूब कर दिया जाय।’’
 मौलवी साहब कहने लगे कि हम ग्यारहवीं शरीफ़ के लिए जो जानवर ज़िब्ह करते हैं उस पर अल्लाह का नाम लेते हैं। ज़िब्ह करते वक्त या गौस या  गौस थोड़ी कहते हैं, तकबीर ही पढ़ते हैं। मैंने कहा कि अगर खिंजी़र को अल्लाहु-अकबर कह कर ज़िब्ह किया जाय तो क्या वह हलाल हो जायेगा? इसी तरह जब एक जानवर को गै़र-अल्लाह की तरफ़ मंसूब कर दिया गया है कि शैख अब्दुल का़दिर जीलानी (रहमतुल्लाह अलैहि) के नाम की नियाज़  है तो उस पर लाख अल्लाहु-अकबर पढ़ लिया जाय तब भी वह कुरआन की आयत की रू से जाइज़ नहीं होगा। मौलवी साहब मेरे ऐतराजात का कोई इत्मीनान बख्श जवाब नहीं दे सके और वालिद साहब की यह कोशिश भी नाकाम हो गई।


मैंने गै़र शरई नज़र व नियाज़ की मुखा़लिफ़त की
 मैंने वालिद साहब की सख्ती के बावजूद घर में गै़र-शरई नज़र व नियाज़ की मुखा़लिफ़त की और घर वालों को समझाया कि अगर कुछ पकाना है, लोगों को खिलाना है तो मुक़र्ररह तारीखों के अलावा किसी भी दिन अल्लाह के नाम का पका लिया करें। हमारी वालिदा निस्बतन सुलझे हुए ज़हन की थीं और थोड़ी बहुत पढ़ी हुई थीं, मैं उन्हें कुरआन मजीद का तर्जुमा पढ़ने की तरगी़ब देता और खुद भी उन्हें पढ़ कर सुनाता जिससे बहुत जल्द उनकी समझ में आई और उनके अकी़दे की इस्लाह हो गई। आज भी अगर्चे वह रफे-यदैन के साथ नमाज़ नहीं पढ़तीं लेकिन अकी़दतन अहले हदीस ही हैं।
नबी के कहने पर भी तुम कह रहे हो कि अल्लाह को नहीं जानते, बताओ नबी की बात का तुम पर क्या असर  उन्हीं दिनों एक साहब से बात हुई वह मुका़मे मुस्तफ़ा बयान करते हुए कहने लगे कि हम तो अल्लाह को नहीं जानते, हमने अल्लाह को देखा ही नहीं। हम तो सिर्फ़ मुहम्मद रसूलुल्लाह को ही जानते हैं। मैंने कहा, मौहतरम अगर तुम मका़मे मुस्तफ़ा हम अहले हदीसों से पूछो, तो हम तो यह कहते हैं किः ‘‘बाद अज़ खुदा बुजुर्ग तो मैं क़िस्सा मुख़्तसर‘‘()
 लेकिन यह जो आप बयान कर रहे हैं, यह मका़मे मुस्तफ़ा नहीं बल्कि नबी की गुस्ताख़ी है, ठीक है हम पहले अल्लाह को नहीं जानते थे, लेकिन नबी ने हमें बताया कि अल्लाह, उसे जानो। नबी के कहने पर भी तुम कह रहे हो कि अल्लाह को नहीं जानते। बताओ नबी की बात का तुम पर क्या असर हुआ?
 एक मर्तबा षया से मेरी गुफ़्तगु हुई वह कहने लगा कि इसका क्या सबूत है कि जो हदीसें आप पढ़ते हैं और उस पर अमल करते हैं वह सही हैं, सच्ची हैं। मैंने जवाब देने के बजाय उल्टा उनसे सवाल कर दिया। मैंने कहा कि कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि हदीसें ग़लत हैं लेकिन जिन किताबों पर आपने अकी़दे और मसलक की बुनियाद रखी है उसकी क्या गारंटी है कि वह सही हैं। फिर मैंने उन्हें बात समझाते हुए कहा कि अगर्चे कुरआन से साबित है कि जिस तरह अल्लाह ने कुरआन की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी ली है उसी तरह हदीस की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी भी ली है। क्योंकि अगर नबी मुकर्रमकी ज़िन्दगी के हालात महफ़ूज़ नहीं होंगे तो कुरआन से इस्तिफ़ादा नहीं किया जा सकता, कुरआन कहता है नमाज़ पढ़ो लेकिन नमाज़ किस तरह पढ़नी है कितनी पढ़नी है? इन सवालों के जवाबात तो हदीस से मिलेंगे लेकिन अगर कुछ देर के लिए फ़र्ज़ कर लें कि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि हदीसें सही हैं तो फ़िक्ह से मुताल्लिक तो और भी शक किया जा सकता है कि वह सही नहीं हैं, इस नुक्ता-नज़र (दृष्टिकोण) से सोचें कि हदीस का मसलक भी ग़लत है, इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाह अलैहि) की फ़िक्ह भी  इमाम जाफ़र सादिक़ (रहमतुल्लाह अलैहि) की फ़िक्ह भी ग़लत, इमाम मालिक (रहमतुल्लाह अलैहि) और इमाम अहमद बिन हंबल(रहमतुल्लाह अलैहि) की फ़िक़्ह भी ग़लत, इमाम शाफ़ई(रहमतुल्लाह अलैहि) की फ़िक्ह भी ग़लत है। ऐसी सूरत में एक अक़लमंद आदमी का झुकाव यकी़नन हदीस ही की तरफ़ होगा, मेरा इन्तिखा़ब भी हदीस है। कल अगर रोज़-ए-क़यामत अल्लाह तआला ने कहा कि फ़लां फ़िक्ह सही थी तो तुमने उसे छोड़ कर हदीस की तरफ़ क्यों आये? तो मैं यह कह सकूंगा कि या अल्लाह दुनिया के बाजा़र में कोई मुझे अबू हनीफ़ा लिल्लाहकी तरफ़ बुला रहा था, कोई अहमद बिन हंबल लिल्लाहकी तरफ़, कोई शाफ़ई लिल्लाहऔर मालिकी और जाफ़र सादिक़ की तरफ़ और कोई हदीस की तरफ़, मेरे ईमान ने गवारा नहीं किया कि मैं तेरे नबी की हदीसों को छोड़ कर किसी की फ़िक्ह की तरफ़ आऊं  क्योंकि कोई भी मुझे सही होने की गारंटी नहीं दे रहा था। वैसे भी अल्लाह तआला ने कुरआन मजीद में अत़ीउल्लाह व अती़उर्रसूलका हुकुम दिया है अगर हदीसें ग़लत हैं तो फिर रसूल की इता़अत कैसे करें? मेरे ख़्याल में यह एक ऐसी आम सी बात है जिसे हर शख़्स आसानी से समझ सकता है। नबी को छोड़ कर किसी इमाम की फ़िक्ह की तरफ़ जाने की क्या ज़रूरत है जबकि इस बात की किसी के पास कोई जमानत नहीं कि फ़लां फ़िक्ह दुरूस्त है।
   इसी तरह मुख़तलिफ़ जगहों पर मुख़तलिफ़ मसाइल पर बहसें होती रहीं और यह बहसें मुझे पुख़्ता अहले हदीस करने का सबब बनती रहीं। आज अल्हम्दु लिल्लाह मेरे छोटे भाई और एक कज़िन भी अहले हदीस हो गये हैं। वालिद साहब में भी बड़ी तब्दीली आई है और उनका अकी़दा बहतर हो गया है। खा़नदान के दीगर घरानों पर भी असरात मुरत्तब हुए हैं और उनकी षिद्दत में कमी आई है। आखि़र में अल्लाह तआला से दुआ़ है कि अल्लाह तआला जितने भी नये अहले हदीस हैं सबकों इस्तिका़मत अ़ता़ फ़रमाये और इस मसलक हक्क़हू के फुरोग के लिए अपना भरपुर किरदार अदा करने की तौफ़ीक़ अता़ फ़रमाये।...(आमीन)


स्रोत - http://www.ahlehadith.org/  (उर्दू से रूपान्‍तरित)


शनिवार, 3 दिसंबर 2011

मुहर्रम और मौजूदा मुसलमान (कुछ हैरतअंगेज और कड़बी हक़ीक़तें)


माह मुहर्रम की नवीं व दसवीं तारीख़ जबर्दस्त अहमियत और इबादत का दिन है। इस दिन हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने नफ़ली रोजे़ रखने का हुक्म दिया है। मातम व मौजूदा रस्म -रिवाज और खुराफ़ात का इस्लाम धर्म से कोई वास्ता (सम्बन्ध) नहीं है। पवित्र कुरआन में है-‘‘इस्लाम वह धर्म है जो सबसे अच्छा और सीधा रास्ता दिखाता है।‘‘
लेकिन अत्यन्त खेद व दुःख के साथ यह हक़ीक़त सुपुर्दे क़लम की जा रही है कि हिजरी सन् के इक्कीवीं वर्ष के प्रारम्भ में कर्बला में जो दर्दनाक हादसा पेश आया बाद के अमीरों (शासकों) ने सियासी रंग देकर अपनी हुकूमत क़ायम रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसकी वजह से मुहर्रम की हुर्मत (मर्यादा) खत्म होती गई। और योम-ए-आशूरा (दसवीं मुहर्रम) जो इबादत का एक ख़ास दिन है, को शहादते हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु को नज़र कर दिया और इस तरह से मुसलिम कौ़म को एक इन्तिहाई रहमत व इबादत के दिन से महरूम (वंचित) करके ग़म व मातम और अनेक खुराफ़ातों के जाल में जकड़ दिया।
     हदीस शरीफ़ में है कि- दीन (इस्लाम) में अपनी तरफ से कोई नया काम निकाला जाय वह बिदअ़त है और बिदअत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है।^^ (बुखारी)
     उपर्युक्त हदीस की रू (संदर्भ) में अगर आज हम मुसलिम कौ़म को देखें तो मुसलमानों की एक बड़ी तादाद (संख्या) बिदअ़त में फंसी नजर आयेगी। इसका एक बड़ा कारण मुसलमानों में जाहिलियत के सिवाय और क्या हो सकता है।
     सुन्नी मुसलमानों की एक बड़ी तादाद मौलाना रजा खां बरेल्वी से अकी़दत रखती है लेकिन आश्‍चर्य है इसके बावजूद वह मुहर्रम की खुराफात में खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैaA हालांकि मौलाना रजा खां बरेल्वी ने भी ऐसी खुराफातों से मना किया है और इन्हें बिदअत और नाजायज व हराम लिखा है और ताजिये देखने से भी मना किया है। चुनांचे उनका फ़तवा है-’’ताजिया आता देखकर एराज व रूगर्दानी कर (मुंह फेर) लें उसकी ओर देखना ही न चाहिए।^^ (इरफाने शरियत भाग1 पृ015)
और पृष्ठ 16 पर एक सवाल के जवाब में कहते हैं कि ‘‘मुहर्रम पर मर्सिया पढ़ना नाजायज है वह मनाही और मुनकरात (नास्तिकता) से पुर होते हैं।‘‘
     इनका एक रिसाला (पत्रिका) ‘‘ताजियेदारी‘‘ है। इसके पृ0 11 पर लिखते हैं-‘‘ताजिये पर चढ़ाया हुआ खाना न खाना चाहिए अगर नियाज़ देकर चढ़ायें या चढ़ाकर नियाज़ दें इस पर भी ऐतराज करें।‘‘
     फिर यह सब सिर्फ बिदअत ही नहीं बल्कि इससे भी बढ़कर यह षिर्क (अनेकेश्‍वरवाद) व बुत परस्ती क अन्तर्गत आ जाती है क्योंकि प्रथम तो हुसैन (रजिअल्लाहो अन्हु) की रूह आत्मा को मौजूद समझा जाता है। इसी प्रकार मज़ारों में पीरों-फक़ीरों के बारे में भी ऐसा ही समझा जाता है तभी तो उनको काबिले ताज़ीम समझते हैं और उनसे मदद मांगते हैं। हालांकि किसी बुजुर्ग की रूह (आत्मा) को हाज़िर व नाज़िर (विद्यमान) जानना और आलिमुल गै़ब (छुपी बातों को जानने वाला) समझना शिर्क और कुफ्र है। चुनांचे हनफ़ी मजहब की विश्‍वसनीय किताब -फताबा बजाजिया‘‘ में लिखा है, जो शख्स यह विश्‍वास रखे कि बुजुर्गों की रूहें हर जगह हाजिर व नाजिर है। और ज्ञान रखती हैं, वह काफिर (नास्तिक) है।
     द्वितीय, ताजिया परस्त ताजियों के सामने सिर झुकाते हैं जो सजदे के अन्तर्गत ही आता है और कई लोग तो खुल्लम-खुल्ला सजदा बजा लाते हैं और गैर अल्लाह (अल्लाह के अतिरिक्त) को सजदा करते हैं, चाहे वह इबादत के तौर पर हो या ताजीम (आदर) के लिए, खुला शिर्क है। चुनांचे अल्लाम क़हसतानी हनफी फरमाते हैं कि-''गैर अल्लाह को सजदा करने वाला बिल्कुल काफिर है, सजदा इबादतन हो या ताजीमन।''‘‘ (रद्दुल मुख़्तार)
    
मातम व ताजियेदारी की ईजाद:-

सन् 352 हिजरी के प्रारम्भ में इब्ने बूसिया ने हुक्म दिया कि 10 मुहर्रम को हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु की शहादत के गम में तमाम दुकानें बन्द कर दी जायें। शहर व देहात के लोग मातमी लिबास पहनें और मातम करें।‘‘ ....
     शीओं ने इस हुक्म का पालन खुशी से किया मगर सुन्नी दम-बखुद और खामोश रहे, क्योंकि शीओं की हुकूमत थी। ...... इसके बाद शीओं ने हर साल इस रस्म को अमल में लाना शुरू कर दिया और आज तक इसका रिवाज हिन्दुस्तान में हम देख रहे हैं। अजीब बात यह है कि हिन्दुस्तान में अक्सर सुन्नी लोग भी ताजिया बनाते हैं।(तारीखे इस्लाम अकबर नजीबाबादी पृ0 66 जिल्द 2 प्रकाशित कराची)

     मुख्य बातें:-

     शहादत मनाने का हुक्म होता तो नबियों से बढ़कर हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु की शहादत नहीं हो सकती। बनी इस्राईल में कई नबियों को शहीद किया गया। आखिरी पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के चाचा हजरत हमजा रजिअल्लाहो अन्हु की शहादत बड़ी दर्दनाक और यातना भरी है। शहादत मनाई जाती तो मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम अपने चाचा की शहादत मनाते और हुक्म भी देते लेकिन ऐसा नहीं किया। हजरत उसमान रजिअल्लाहो अन्हु जो मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के दामाद थे उनकी भी दर्दनाक शहादत कुरआन पढ़ते में हुई। एक और मुख्य बात हजरत अली रजिअल्लाहो अन्हु, जो हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु के पिता और मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के दामाद थे, की भी दर्दनाक शहादत हुई। अब गौ़र तलब बात है कि इनके बेटे हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु ने शहादत क्यों नहीं मनाई तो फिर हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु की शहादत क्यों मनाई जाती है?

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

दस मुहर्रम और मुसलमान


मुहर्रम का महीना इस्लाम धर्म में निहायत महत्व व फ़जीलत रखता है। तमाम मुसलमानों के निकट इसका मुका़म व अहतराम रखना अनिवार्य है। इस्लामी साल की शुरूआत भी इसी महीने से होती है। इसी तरह इस्लामी साल के बारह महीनों में रजब, जुलका़दह, जुलहिज्जह के महीने भी ताजीम (सम्मान) के लायक हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है कि- अल्लाह के यहांँ ज़मीन व आसमान के पैदा किये जाने के दिन ही से महीनों की गिनती बारह है। इसलिए तुम अपने आप पर अत्याचार न करो। (सूरहःतौबह-36)
आशूरा का रोजा़- आशूरा मुहर्रम की दसवीं तारीख को कहा जाता है। इस दिन की बड़ी फ़जीलत है व अहमियत है। अल्लाह तआला ने इस दिन हजरत मूसा अलैहिस्सलाम को और उनकी कौ़म बनी इस्राईल को फ़िरऔन के अत्याचार से छुटकारा दिलाया था। इस दिन रोजा़ रखना सुन्नत है और इसकी बड़ी अहमियत और फ़जीलत आई है। इससे पिछले एक साल के सगी़रा गुनाह माफ़ कर दिये जाते हैं। हजरत क़तादा रजिअल्लाहों अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से आशूरा के रोजे़ के बारे में पूछा गया तो आपने फ़रमाया यह पिछले एक साल के पापों (गुनाहों) का कफ्फ़ारा बन जाता है। (मुसलिम) मुूहर्रम की दसवीं तारीख को रोजा़ रखने के साथ उसके आगे या पीछे एक दिन को रोजे़ को मिला लेना होगा (अहमद)
मुहर्रम की बिदअतें- मुहर्रम में मसनून काम सिर्फ़ रोजा़ है, मगर आजकल के मुसलमान इसमें रोजा़ रखने के बजाय खुराफा़त में उलझ गये हैं। हजरत हुसैन (रजिअल्लाहों अन्हु) की शहदत के कारण मुहर्रम के दिन को ग़म व मातम का दिन बना लिया गया है। जबकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के ज़माने में रोजा़ के सिवाय कुछ नहीं था।
ताज़िया बनाना- ताज़िया बनाना महापाप है। काग़जों व लकड़ियों से ताज़िया बनाते हैं। हजारों स्त्री-पुरूष सजदा करते हैं, उससे मुरादें मांगते हैं। यह लोग ख्याल करते हैं कि इसमें हजरत हुसैन (रजिअल्लाहों अन्हु) की आत्मा आ ती है। अपने बच्चों को ताज़िया के नीचे से गुज़रवाते हैं, ताकि वह तमाम मुसीबतों व नज़रे   बद (कुदृष्टि) से महफ़ूज रहें। यह सब शिर्क का काम है और ऐसा करना हराम है। अल्लाह तआला  का फ़रमान है- क्या तुम उस चीज़ को पूजते हो, जिसको खुद बनाते हो। जबकि अल्लाह तआला ने तुमको और तुम्हारे काम को पैदा किया है। (सूरहःसाफ़फ़ात)
नौहा व मातम - इस्लाम ने मुसीबतों पर सब्र करने का आदेश दिये है और मातम करने वाले पर लानत भेजी गई है। हदीस में है कि अल्लाह तआला की लानत हो उस पर जिसने मुसीबत पर बाल मुंड लिये, जो़र से चिल्लाया और कपड़े फाड़े। (मुसलिम) इसी तरह ढोल, ताशा, नगाड़ा बजाना हराम है। हदीस में आया है कि रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि अल्लाह ने मुझे सारी दुनिया के लिये रहमत व हिदायत बनाकर भेजा है और मुझे हुक्म दिया है कि मैं तमाम बाजों, ढोलों, ताशों, नगाड़ों आदि को मिटादूं।

रविवार, 20 नवंबर 2011

मुसलिम होने का मतलब

 अल्लाह के नाम से हम उसी की तारीफ़ करते हैं, उसी से मदद तलब करते हैं और माफ़ी के तलबगार हैं। अल्लाह जिसे सही मार्गदर्शन (सीधा रास्ता) करना चाहे उसे कोई भटका नहीं सकता और जिसे अल्लाह रास्ते से भटकाना चाहे उसे कोई सही राह पर नहीं ला सकता। हम गवाही देते हैं कि कोई माबूद (पूजा के लायक) नहीं है सिवाए अल्लाह के और गवाही देते हैं कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम अल्लाह के बन्दे और अन्तिम रसूल हैं।
 सबसे पहले मुसलिम शब्द का मतलब मालूम करते हैं । मुसलिम शब्द जिसका हम आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं, का असल मतलब क्या है? मुसलिम वह है जो अपनी इच्छा, मर्जी अल्लाह की मर्जी, ख्वाहिश के आगे त्याग दे। दूसरे शब्दों में अपने आपको अल्लाह के लिए समर्पित कर देना । अब सवाल है कि कौन मुसलिम है और कौन मोमिन? क्या कोई आदमी अपने जन्म के आधार (गुण) पर मुसलिम हो सकता है? क्या आदमी मुसलिम सिर्फ इसी वजह से हो सकता है कि वह किसी मुसलिम का बेटा या बेटे का बेटा (पौ़त्र) है? क्या कोई महज मुसलिम घर में पैदा होने मात्र से मुसलिम हो जाता है? जैसे कि हिन्दू का बेटा हिन्दू होता है या अंग्रेज का बेटा अं्रग्रेज होता है । क्या मुसलिम जाति है या राष्ट्र्ीयता है। क्या मुसलिम होना मुसलिम उम्मत से संबंध रखना है । जैसे आर्यन लोग आर्यन जाति से संबंधित थे। जैसे जापानी लोग जापनी होते हैं, क्योंकि वह जापान में जन्म लेते हैं । उसी तरह से क्या मुसलमान मुसलिम कहलाता है क्योंकि उसने मुसलिम मुल्क में या मुसलिम घर में जन्म लिया है ? आपका इन सवालों से संबंधित उत्तर ‘न’ में होगा। एक मुसलिम सही मायने में मुसलिम नहीं हो सकता, महज इस वजह से कि वह मुसलिम पैदा हुआ है।  वह मुसलिम इसलिए है क्योंकि वह इस्लाम को मानता है। अगर वह इस्लाम को त्यागता है वब वह मुसलिम नहीं होता। कोई आदमी चाहे ब्राह्मण हो या राजपूत, अंग्रेज हो या जापानी, काला हो या गोरा वह शख्स इस्लाम ग्रहण करने पर मुसलिम समाज (कौ़म) का सदस्य बन जाता है। इसके विपरीत यदि कोई शख्स जो मुसलिम घर में पैदा हुआ है उसको मुसलिम उम्मत से निकाल दिया जाता है या उसने इस्लाम को अपनाने से छोड़ दिया चाहे वह नबी का उत्तराधिकारी ही क्यों न हो। वह मुसलिम नहीं हो सकता।
 यह इस बात को स्थापित करता है कि अल्लाह की सबसे बड़ी नेमत (उपहार) जिसका हम आनन्द उठाते हैं कि मुसलिम होना, यह कोई ऐसी बात नहीं कि वह अपने आप पैतृक रूप में हमें हमारे मां, बाप से मिलती है, जो जिन्दगी भर आधिकारिक रूप से हमारे नज़रिये और अख़लाक़ के बरखिलाफ़ हमारे पास रहती है। यह एक तोहफ़ा है जिसको पाने के लिए हमें लगातार लड़ना है।
 हम सब इस बात पर राजी है कि इस्लाम ग्रहण करने पर हम मुसलिम बन जाते हैं । लेकिन इस्लाम ग्रहण करने का मतलब क्या है? क्या इसके मायने यह होते हैं कि जो केाई भी यह ज़बानी इक़रार करता है कि ‘‘मैं मुसलिम हूं’’ या मैंने इस्लाम कुबूल कर लिया है? वह यह कहने से सच्चा मुसलमान बन जाता है ? या इसका मतलब यह होता है कि जैसे एक हिन्दू धर्म को मानने वाला कुछ संस्कृत के लिखे शब्दों को पढ़ ले बिना उनके मतलब को समझे। इसी तरह से कोई शख्स कुछ अरबी शब्दों को बिना उनका मतलब जाने पढ़े और मुसलमान हो जाए? आप इस सवाल का क्या जवाब देंगे। हम इसका जवाब देंगे कि इसलाम कुबूल करने का मतलब होता है कि मुसलमान पूरे होश और समझ-बूझ के साथ स्वीकार करे कि जो कुछ भी कुरआन में उतारा गया है उसके हिसाब से चलें। जो लोग इसके मुताबिक अमल नहीं करते हकी़क़त में वह मुसलिम नहीं हैं।
 इस्लाम में सबसे पहले ज्ञान (इस्लामी मालूमात) है और फिर उस ज्ञान को (व्यवहार में लाना )अमली जामा पहनाना है। कोई भी शख्स सच्चा मुसलिम नहीं हो सकता बिना इस्लाम का मतलब जाने,क्योंकि  वह मुसलमान होता है तो न कि जन्म से बल्कि ज्ञान (इस्लामी मालूमात) हासिल कर उसे अपनी जिन्दगी में व्यवहारिक रूप से उतारे। यह बात स्पष्ट है कि कोई मालूमात न होने कि वजह से सच्चा मुसलिम बनना और रहना नामुमकिन है। मुसलमान घरों में जन्म लेना, मुसलमानी नाम रखना, मुसलमानी पहनावे (कपड़े) पहनना और अपने आपको मुसलिम पुकारना ही मुसलमान होने के लिए काफ़ी नहीं है ।
 काफ़िर (नास्तिक) और मुसलिम के बीच अन्तर सिर्फ़ नाम का ही नहीं है, जैसे किसी का नाम स्मिथ या रामलाल और अब्दुल्लाह  है। कोई आदमी सिर्फ़ नाम की वजह से काफ़िर और मुसलिम नहीं होता । इसमें सबसे बड़ा अन्तर इस्लामी मालूमात का और उसपर अमल का है । एक काफ़िर यह नहीं समझता कि उसका अल्लाह से क्या संबंध है और अल्लाह का उससे क्या ताल्लुक़ है । जिस तरह से वह अल्लाह की मर्जी को नहीं जानता उसी तरह से वह सीधा रास्ता नहीं जान सकता, जिसपर चलकर वह अपनी जिन्दगी गुजा़र सके। यदि एक मुसलिम अल्लाह की मर्जी को नज़रअन्दाज़ कर दे, तब किस आधार पर काफ़िर के बजाय मुसलमान कहा जायेगा?
 यहांँ पर जजा़ (इनाम) और सजा़ में अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा फ़र्क़ है, जो रस्मी तौर पर (दावा करने वाले) कथित मुसलिम और एक सच्चे मुसलमान  के बीच एक कथित तौर पर मुसलिम होने का दावा करने वाला मुसलमान कहलाया जा सकता है, जब वह मुसलिम नाम रखे और मुसलिम घर में पैदा हुआ हो। लेकिन अल्लाह के नज़दीक  सच्चा मुसलमान वही हागा, जो इस्लामी मालूमात रखता हो और कुरआन व सुन्नत के मुताबिक अमल करे। ऐसे वह लेग हैं, जिनको अल्लाह ने कुरआन के अन्दर मोमिन का खिताब दिया है और इन मोमिनों के लिए अल्लाह ने आखिरत में अच्छे इनाम का वादा किया है।
अल्लाह हमंे उन लोगों में से बनाये जो निरन्तर अपने गुनाहों की बख्शिश मांगते रहते हैं और वह अपनी असीमित रहमत और अपनी हिफ़ाजत में रखे । आमीन.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

सन् 1996 में इस्‍लाम कुबूल करने वाली एक नव मुसलिम औरत का मुसलमानों के नाम खुला ख़त

बिसमिल्‍लाहिर्रहमानिर्रहीम
मेरे दीनी भाई-बहनो ! अस्‍सलामो अ़लैकुम व रहमतुल्‍लाह व बरकातहू,
     मुझे इस्‍लाम से बहुत प्‍यार था और मैं जब मुसलमानों को देखती तो उन्‍हें बहुत सही और उनका मज़हब बहुत सच्‍चा समझती थी׀ लिहाजा़, अल्‍लाह के फ़ज़ल व करम से मैंने आज से तक़रीबन 15 साल पहले इस्‍लाम को कुबूल कर लिया׀ जिसकी वजह से मेरे मां-बाप, भाई-बहन सारे रिश्‍तेदार अब सिर्फ नाम के ही रिश्‍तेदार रह गये है यानि सब मुझसे छूट गये׀ सोचा था कि मुसलमान बनने पर सभी मुसलमान मुझे बहुत चाहेंगे और मेरे इस क़दम का स्‍वागत करेंगे पर जब मैंने इस्‍लाम कुबूल किया तो मुझे वहां उल्‍टी ही गंगा बहती मिली׀ दीन की सही बातें समझने के बाद जब मैंने उन्‍हें समझना चाहा तो मुझे ही उन्‍होंने गुमराह-दोज़खी़, वहाबी और न जाने किन-किन अल्‍का़ब (सम्‍बोधन) से नवाज़ना शुरू किया, क्‍योंकि जो बुत परस्‍ती मैं छोड़कर आयी वही सब कुछ मैंने थोड़े से बदले हुए नामों के साथ मुसलमानों को क़ब्रों के साथ करते हुए देखा, तो मेरे दिल में आया कि ये सब तो मैं अपने पुराने धर्म में भी कर रही थी तब मुझे इस्‍लाम कुबूल करने की ही क्‍या ज़रूरत थी?  लेकिन जब इस्‍लाम की मूल शिक्षाओं को गौ़र से समझा तब मालूम हुआ कि आज के आ़म मुसलमान तो अपने ही धर्म की मूल शिक्षाओं से बहुत ही दूर हैं और इनके धार्मिक विद्वान (उलमा व मौलवी) भी इन्‍हें उन मूल शिक्षाओं से बहुत ही दूर रखे हुए हैं और धर्म की आड़ में अपनी रोजी़-रोटी चला रहे हैं׀ कुरआन में भी है- ‘’बहुत से आ़लिम व दरवेश लोगों का माल नायज़ तरीके़ से खाते है और अल्‍लाह के रास्‍ते से रोकते हैं׀’’ (सूरह तौबा-34)

     इस्‍लाम की मूल शिक्षाओं का स्रोत सिर्फ और सिर्फ कुरआन व हदीस है लेकिन आजके नाम-निहाद (तथाकथित) और पेट के पुजारी मौलवियों ने ये भ्रामक प्रचार कर रक्‍खा है कि आ़म मुसलमान कुरआन व हदीस को नहीं समझ सकता, क्‍योंकि ये बहुत कठिन है׀     जबकि अल्‍लाह तआ़ला का फ़रमान है कि- ‘’हमने इसे आसान बनाया है समझने के लिये, तो है कोई समझने वाला?’’ (सूरह क़मर-17)
जब मैं सिर्फ कक्षा 4 तक की पढ़ी हुई और मैंने पूरे कुरआन के हिन्‍दी अनुवाद को पढ़ा तो मेरी समझ में वो आ गया , फिर ये मौलवी ना जाने कैसे ये कहता है कि कुरआन बहुत सख्‍त है और तुम नहीं समझ सकते (नउज़बिल्‍लाह)׀   
     जब मैंने इस्‍लाम की मूल शिक्षाओं को समझा तब मुझे पता चला कि मैंने कितनी बड़ी कामयाबी की राह को पा लिया है और अल्‍लाह तआ़ला के फ़ज़ल व करम से कितनी बड़ी गुमराही से बच गयी׀
     मैं आप सभी मुसलमान भाईयों की खि़दमत में किसी की लिखी ये पंक्तियां पेश कर रही हूं, जिन्‍हें पढ़ कर आप को शायद थोड़ी ना-गवारी तो ज़रूर लगेगी लेकिन जब आप ठण्‍डे दिमाग़ से सोचेंगे और कुरआन व हदीस की मूल शिक्षाओं से मिलायेंगे तो आपको इन्‍शाअल्‍लाह इन पंक्तियों के एक-एक शब्‍द बिल्‍कुल सच व सही लगेंगे׀ हो सकता है कि आप मेरे विचार और ख्‍यालात से मुत्‍तफि़क़ (सहमत) न हों लेकिन मैं अपने अनुभव और अपने विचारों को फिर भी पेश कर रही हूं कि शायद आप इस पर गौ़र करें और अपनी इस्‍लाह करें׀ 
     ‘’शायद कि उतर जाये सीनों में मेरी बात’’
गै़र मुसलिम का, मुसलिम से खि़ताब
एक ही प्रभु की पूजा हम अगर करते नहीं,
एक ही रब के सामने, सर आप भी रखते नहीं׀  ׀    
           अपना सजदागाह देवी का अगर स्‍थान है׀
           आपके सजदों का मरकज भी तो क़ब्रस्‍तान है׀   ׀    
अपने देवी-देवताओं की गिनती , हम अगर रखते नहीं׀
आप भी तो मुश्किल कुशाओं को, गिन सकते नहीं׀    ׀    
           जितने कंकर उतने शंकर ये अगर मशहूर है׀   
           जितने मुर्दे उतने सजदे, आपका दस्‍तूर है׀     ׀    
अपने देवी-देवताओं को है अगर कुछ अख्तयार׀
आपके वलियों की ताक़त का नहीं है कुछ शुमार׀ ׀    
           वक्‍त मुश्किल का है नारा अपना तो, जब बजरंग वली׀
           आपको भी देखा लगाते नारा, अल मदद या अली׀     ׀    
लेता है अवतार प्रभु अपना, तो हर देश में׀    
आपने समझा अल्‍लाह को मुस्‍तफ़ा के भेष में׀   ׀    
           जिस तरह से हम बाजाते, मंदिरों में घंटियां׀   
           तुरबतों पर आपको , देखा बजाते तालियां׀ ׀    
हम भजन करते हैं गाकर, देवता की खूबियां׀  
आप भी क़ब्रों पर गाते , झूम कर क़व्‍वालियां׀   ׀    
           हम चढाते हैं बुतों पर, दूध और पानी की धार׀ 
           आपको देखा चढाते, सुर्ख़ चादर शानदार׀ ׀    
बुत की पूजा हम करें, हमकों मिले नार-ए-सकर׀
आप कब्रों पर झुकें, क्‍यूंकर मिले जन्‍नत में घर?
           आप भी मुशरिक- हम भी मुशरिक, मामला जब साफ़ है׀    
           जन्‍नती तुम दोज़ख़ी हम, ये भी कोई इन्‍साफ़ हे?
हम भी जन्‍नत में रहेंगे, तुम अगर हो जन्‍नती׀
वर्ना दोज़ख़ में रहेंगे, आप हमारे साथ ही׀ ׀    
           हम भी छोड़ें-तुम भी छोड़ो, हैं ग़लत जो रास्‍ते׀ 
           एक ही माबूद को पूजें, आओ- अल्‍लाह के वास्‍ते׀ ׀    

     अन्‍त में आप सभी मुसलिम भाईयों से आह्वान करती हूं (हालांकि ये काम आपको खुद ही करना चाहिए था) कि आप लोग कुरआन व हदीस की तालीमात (शिक्षाओं)को खुद पढ़ें, खुद समझें तो इन्‍शाअल्‍लाह इस्‍लाम की सही तस्‍वीर आप खुद ही जान जायेंगे׀    आपसे मैं सिर्फ इतना ही कहूंगी कि आप सभी दीनी भाई-बहनें कम से कम एक बार पूरे कुरआन मजीद को तर्जुमे के साथ पढ़ डालें, फिर देखें कि क्‍या आपको कुरआन समझ में नहीं आता है? और ये देखिये कि आज जो कुछ आप तीज-त्‍यौहार के नाम पर सवाब पाने की नियत से कर रहे हैं क्‍या वो सब ठीक है? जिसे आज आपने ऐन इस्‍लाम समझकर गै़रूल्‍लाह को अल्‍लाह का मुका़म देकर उस पर सवाब की नियत से जो कुछ भी दीन और मज़हब के नाम पर कर रहे हैं क्‍या वो सब जायज़ है? या ठीक है? करआन को गि़लाफ़ में रख कर सिर्फ ताक़ों की जी़नत मत बनाइये, बल्कि उसे पढि़ये, गौ़र करिये और अपनी जिन्‍दगी में उतारने की कोशिश करिये और वक्‍त़ की नमाजें मुक़र्ररा वक्‍त पर अदा करें, दीनी मां-बहने भी अपनी नमाजों की पाबन्‍दी करें और जुमा के दिन ज़रूर मसजिद में जाकर ख़ुत्‍बा सुने और जमाअ़त में शामिल हुआ करें׀    मसजिद में औरतें भी मुकम्‍मल पर्दे के साथ (उनका इन्‍तजा़म भी अलग रहना चाहिये) जाकर एक इमाम के पीछे नमाज़ अदा कर सकती हैं׀
     पर अफ़सोस है कि इस भी आज नाम-निहाद जेब भरू पीर और पेट भरू मौलवियों ने नाजायज़ क़रार दे रखा है जबकि औरतों को बनावटी बैअ़त और मजा़रों की हाजि़री के लिये बेपर्दा करने में इन्‍हें कोई ऐब नज़र नहीं आता׀   ये सब शैतान कि़स्‍म के लोग हैं, ऐसे लोगों के बहकावे में मत आयें׀ अल्‍लाह के नबी मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के वक्‍त में भी औरतें मसजिद में जाकर, अलग से खड़ी होकर नमाजें अदा किया करती थीं इसलिये ये जायज़ है और आज भी मसजिदों में इसका इन्‍तजा़म होना चाहिये׀ एक बात और जान लीजिये कि अल्‍लह के नबी (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) ने ईदैन (ईद-बक़रीद) की नमाजें औरतों को ईदगाह में जाकर अदा करने का ह़ुक्‍म दिया है इसलिये औरतों को ईदैन की नमाज़ मे शामिल होना वाजिब है, अगर हैज़ (मासिक धर्म) की हालत में हों तब भी जाना वाजिब है, हां उस हाल में नमाज़ नहीं पढ़ेंगी बल्कि अलग बैठेंगी और खुत्‍बा व दुआ बगैरह में शामिल रहेंगी, अगर एक औरत के पास पर्दे के लिये कपड़ा न हो तो दूसरी औरत अपने चादर में उसे भी ले ले, अगर आपको इन बातों पर यकी़न न हो तो इन हदीसों का खुद मुतालआ (अध्‍ययन) कर लें׀   
1-बुखरी, हदीस नं0 981, 2- मुसलिम, हदीस नं0 890, 3- अबूदाउद, ह0नं0 1136, 4-तिर्मिजी़ ह0न0 537, 5-इब्‍ने माजा़ ह0नं0 1308, 6- नसई भाग3, 7-अहमद, भाग5, पेज84, 8-बैहकी़, भाग3 पेज305 ׀   

     आखि़र में अल्‍लाह तआ़ला से द़ुआ़ है कि वो मेरी इस छोटी सी कोशिश को कु़बूल फ़रमाए और हम सभी मुसलमानों को इस्‍लाम की सही तालीमात (शिक्षाओं) पर चलने वाला अपने नबी-ए-करीम (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के बताये हुए तरीकों पर अ़मल करने वाला सच्‍चा-पक्‍का मोमिन बनाये और जन्‍नतुल फि़रदौस में हमें जगह अ़ता करे ׀ (आमीन) आप सभी अपनी इस नव मुसलिम बहन को अपनी नेक दुआ़ओं में ज़रूर याद रखियेगा, अगर कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ करियेगा ׀
आपकी एक नव मुसलिम बहन जा़हिदा मुहम्‍मदी
(इस्‍लामिक रिसर्च सेन्‍टर, मिर्जापुर)