सोमवार, 2 जुलाई 2012

तक़लीद की हक़ीक़त


    तक़लीद के लग़वी  मअ़ना गले में किसी चीज़ को लटकाना है लेकिन जब इसका इस्‍तेमाल दीन के मफ़हूम में आये तो उस वक्‍त इसका मअ़ना किसी बात को बगैर दलील और गौर व फि़क्र के कुबूल कर लेना है. जैसा कि लिसानुल अरब सफ़ा 367 बगैरह मौतबर कुतुबे लुग़त में है.
   मौलाना सरफ़राज़ खां सफ़दर फ़रमाते हैं कि लुग़त की जदीद और मारूफ़ किताब (मिस्‍बाहुल-लुगा़त सफा 764) में है- उसने उसकी फ़लां बात में बगैर ग़ौर व फि़क्र के पैरवी की. (अल्‍कलामुल मुफ़ीद सफा 30)
कुरआन करीम में कई आयात से तक़लीद की नफ़ी होती है. चन्‍द आयात यह हैं- ‘‘जो कलाम तेरी तरफ बज़रिया वहीय भेजा गया है उसको मज़बूती से पकड़े रह इसमें शक नहीं कि तू सीधी राह पर है’’ (सूरह जुखरूफ़ आयत नं0 25). सूरह मायदा आयत नं0 49 में है ‘’पस तू उनमें अल्‍लाह के उतारे हुए हुक्‍मों से फ़ैसला कीजिये और तेरे पास सच्‍ची तालीम आई है उसे छोड़ कर उनकी ख्‍वाहिशात के पीछे न चलिये.’’  इन आयतों में इस बात का हुक्‍म दिया गया है कि पैरवी सिर्फ और सिर्फ वहीय की कीजिये और वहीय की मौजूदगी में ख्‍वा‍हिशात की पैरवी न करना.
   सूरह नहल में अल्‍लाह तआला का इरशाद है- ‘’और अपनी ज़बानों के झूठ बयान से न कहा करो कि यह हलाल है और यह हराम कि तुम अल्‍लाह पर झूठ के बोहतान बांधने लगो जो लोग अल्‍लाह पर झूटे इफि़तरा करते हैं हरगिज़ न बामुराद होंगे उनके लिए थोड़ा सा गुज़ारा है और उनके लिए दुख का अ़ज़ाब है.’’
आयत अपने मक़सद में बिल्‍कुल वाजेह है कि किसी चीज़ को हलाल व हराम क़रार देना अल्‍लाह तआला के लिए ख़ास है और यह कि अपनी तरफ़ से किसी चीज़ को हलाल व हराम कहना मालिके हकीकी़ पर बोहतान बांधना है इस बात का रब रहमान ने सूरह यूनुस आयत नं0 59 में भी बयान किया है. अल्‍ग़रज किसी चीज़ की हिल्‍लत व हुरमत का ताल्‍लुक़ अल्‍लाह की ज़ात से ख़ास है अब जो शख्‍स इमाम अबू हनीफ़ा की तक़लीद को हलाल क़रार देकर उसे फ़र्ज क़रार देकर उसे फ़र्ज व वाजिब कहता है. जा़हिर है कि वह अल्‍लाह की तरफ़ झूठ मन्‍सूब करता है क्‍योंकि अल्‍लाह ने किसी जगह भी इमाम अबू हनीफ़ा की तक़लीद करने का हुक्‍म व इरशाद नहीं फ़रमाया. इस आयत से एक और बात भी मालूम हुई वह यह कि जब कोई शख्‍स किसी चीज़ को हलाल व हराम कहता है तो उसकी हिल्‍लत व हुरमत की कोई दलील कुरआन व सुन्‍नत से देना उस पर लाजि़म है वर्ना वह इफि़तरा अल्‍लाह होगा और उससे भी बढ़कर वह शख्‍स नादान व जाहिल और अल्‍लाह की सिफ़त में शरीक ठहराने वाला होगा जो इंसान इस हिल्‍लत व हुरमत के फ़तवा  को बिला चूं व चिरां क़बूल कर लेता है और उसे तमाम वाजिबात से ज्‍यादा अहमियत देता है बल्कि उसकी तरफ़ दावत देता है और उससे इन्हिराफ़ इस्‍लाम से बग़ावत के मुतरादिफ़ क़रार देता है और उस बे-दलील फ़तवा के मुन्‍करीन को गुमराह और मुब्‍तदईन में शुमार करता है.

तक़लीद की रस्‍म अहले किताब में थी?

अस्‍ल में तक़लीद अहले किताब और मुशरिकी़ने अरब की रस्‍मे बद है, इसका दीने इस्‍लाम से दूर का भी वास्‍ता नहीं है. इरशादे रब्‍बानी है- ‘’उन्‍होंने अपने पादरियों और दरवेशों और मसीह इब्‍ने मरियम को अल्‍लाह के सिवा माबूद बना रखा है हालांकि हुक्‍म सिर्फ यही था कि अकेले माबूद की जिसके सिवा कोई माबूद नहीं इबादत करें वह उनके शिर्क से पाक है.’’ (सूरह तौबा आयत नं0 31)
इस आयत की तफ़सीर नबी करीम (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम)ने खुद फ़रमाई है, जिसे हज़रत अ़दी बिन हातिम (रजिअल्‍लाहु अन्‍ह) बयान करते हैं कि मैंने यह आयत रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) को तिलावत करते हुए सुना तो मैंने अर्ज किया कि या रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) हमने उनकी कभी भी इबादत नहीं की और न हम मौलवी और दरवेशों को रब मानते थे तो रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि- वह अपने उलमा की इबादत नहीं करते थे जब उनके उलमा किसी चीज़ को हलाल कह देते तो वह उसे हलाल कर लेते और जब वह किसी चीज़ को हराम क़रार देते तो वह भी उसे हराम तस्‍लीम कर लेते. (सुनन तिर्मिज़ी मय तोहफ़तुल अहवज़ी सफ़ा 117)
बाप-दादा की तक़लीद, हर दौर में गुमराही की बुनियाद रही है. कौ़मे आद ने भी यही ‘’दलील’’ पेश की और शिर्क को छोड़कर तौहीद का रास्‍ता अख्तियार करने पर आमादा नहीं हुए. बद कि़स्‍मती से मुसलमानों में भी अपने बड़ों की तक़लीद की यह बीमारी आम है. इनका एक तबका़ तो वह है जो दीन का कुछ शऊर रखता है और दीनी उलूम में भी उसे एक हद तक दस्‍तरस हासिल है, लेकिन उसने अपने आपको किसी न किसी खा़स फिकह और मुतय्यन इमाम की राय का पाबन्‍द कर रखा है और इस तक़लीद ने इन मक़ल्लिदीन को कई सुन्‍नतों पर अमल करने से रोक रखा है क्‍योंकि वह सुन्‍नतें उनकी फि़कह में दर्ज नहीं हैं या उनके इमाम ने इन्‍हें कोई अहमियत नहीं दी. एक दूसरा तबक़ा वह है जो दीनी शऊर और दीनी उलूम से ही अंजान है. उसका मज़हब ही रस्‍म व रिवाज परस्‍ती है. चुनांचे यह तबक़ा शादी हो या मर्ग, हर मौके़ पर जाहिलाना रस्‍मों की पाबन्‍दी करता है, और बिदआत पर अमल करने को फ़राइज़ व सुनन से भी ज्‍यादा अहमियत देता है. उनके हां फ़राइज. का तरक आम है, लेकिन बिदआत व रसूमात की पाबन्‍दी का ग़ायत दर्जा अहतमाम. ‘’दलील’’ उनकी भी यही है कि यह काम हमारे ‘’बड़े’’ करते आये हैं- ‘’और उनसे कहा जाता है कि अल्‍लाह तआ़ला की उतारी हुई किताब की ताबेदारी करो तो जवाब देते हैं कि हम तो उस तरीक़े की पैरवी करेंगे जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया, अगर्चे उनके बाप-दादा बे अक़ल और गुमराह ही क्‍यों न हों.’’(सूरह बकरा आयत नं0170)
‘’तक़लीद की रविश से तो बहतर है खुदकशी
रस्‍ता भी ढूंढ, खिज्र का सौदा भी छोड़’’