बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

अल्लाह पर विश्‍वास के साथ घालमेल


शिर्क - सबसे महान जुर्म व गुनाह है, हजरत अबू बक्र रजिअल्लाहो अन्हु से मर्वी है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने तीन मर्तबा फ़रमायाः क्या मैं तुम्हें सबसे बड़ा गुनाह न बताऊं. लोगों ने कहा- जरूर ए अल्लाह के रसूल, आपने फ़रमाया अल्लाह के साथ शिर्क करना। (हदीस बुखारी व मुसलिम)
अल्लाह रब्बुल आलमीन हर गुनाह को माफ़ कर सकता है लेकिन शिर्क की मगफ़िरत के लिए तौबा जरूरी है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया -
‘‘अल्लाह तआला शिर्क बिल्कुल न बख्शेगा इसके अलावा दीगर गुनाह जिसके चाहे माफ़ कर देता है।’’( कुरआन-सूरह निसाः116)
 शिर्क का अनुगामी इस्लाम से खारिज और अगर इसी पर मौत आ जाये तो हमेशा के लिए जहन्न्मी हो जाता है, शिर्क के चन्द नमूने जो मुसलिम मुल्कों में कसरत से पाये जाते हैं निम्नांकित पंक्तियों में वर्णित हैंः-
1- क़ब्र परस्ती और पीरों फ़की़रों को को पुकारना इसके अक़ीदे के साथ कि वह हाजतें (जरूरतें) पूरी करते हैं, जबकि अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि ‘‘ और तेरे रब ने फ़ैसला किया है कि तुम उसके सिवा किसी की इबादत हरगिज़ न करो। (कुरआन-सूरह इसराः23)  इसी तरह अंबिया व सालिहीन को शफा़अत और परेशानी से निजात के लिए पुकारना यह सब शिर्क में दाखिल है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया‘‘ कौन बे-कस की पुकार सुनता है और परेशानी दूर करता है और तुम्हें ज़मीन का खलीफ़ा बनाता है, क्या अल्लाह के सिवा कोई और माबूद (पूज्य) है? (कुरआन-सूरह नमलः62)
 कुछ मुसलमानों का हाल यह है कि उठते-बैठते, सोते-जागते और मुसीबत व परेशानी में हमेशा किसी वली या बुजु़र्ग का नाम लेते हैं, कोई या अली मुश्किल कुशा, तो कोई या हुसैन, कोई या ख्वाजा बगैरह को पुकारता है, जबकि जबकि अल्लाह तआला ने फ़रमाया तुम अल्लाह को छोड़ कर जिन्हें पुकारते हो वह भी तुम्हारे जैसे बन्दे हैं। ( कुरआन-सूरह ऐराफ़ः196)
 और कुछ लोग क़ब्रों का तवाफ़ (परिक्रमा) करते हैं, इसकी चोखट चूमते हैं, छूकर जिस्म पर मलते हैं, उसको सजदा करते हैं और उसके सामने सिर झुकाकर बड़े ही अदब और अहतराम के साथ खड़े होकर फ़रियाद करते हैं, मरीज़ की शिफ़ायाबी और औलाद तलब करते हैं, यह सब शिर्क हैं। अल्लाह तआला फ़रमाता है ‘‘ और उससे बढ़कर कौन गुमराह होगा? जो अल्लाह के सिवा ऐसे लोगों को पुकारता हे जो क़यामत तक उसकी दुका कुबूल नहीं कर सकते,बल्कि वह उनकी दुआ से बेखबर हैं।’’ ( कुरआन-सूरह अहकाफः5)
  और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लमस का इर्शाद है ‘‘ जिसकी मौत शिर्क की हालत में हुई वह जहन्नम में दाखिल होगा। (हदीस बुखारी) 
कुछ लोग क़ब्रों पर जाकर अपना सिर मुंडाते हैं और यह विश्वास रखते हैं कि यह क़ब्र वाले पीर-फ़की़र क़ायनात (सृष्टि) में तब्दीली करते हैं और फ़ायदा व नुक़सान के मालिक है, अल्लाह तआला फ़रमाता है कि- ''और तुमको अल्लाह कोई तकलीफ़ पहुंचाए तो उसके सिवा कोई दूर करने वाला नहीं है और अगर वह तुम्हें कोई खै़र (भलाई) पहुंचाना चाहे तो उसके फ़जल को कोई रोकने वाला नहीं है।( कुरआन-सूरह यूनुसः107)


 वह चीजें जिनमें फ़ायदे का विश्वास रखा जाये शिर्क-ए-असगर है, लेकिन अगर यह विश्वास हो कि वह फ़ायदा व नुक़सान की मालिक हैं तो शिर्क-ए-अकबर( बड़ा शिर्क) हो जाता है। जैसे बहुत सारे लोग तावीज़ गन्डों, कड़ों और छल्लों को अपनी गर्दनों हाथों या गाड़ियों पर लटकाते हैं या बच्चों को पहनाते हैं, जबकि कुछ मुखतलिफ़ नगीनों की अंगूठियां पहनते हैं, जिनसे नज़रे बद या आफ़त व मुसीबत टालने का मक़सद होता है, कुछ माऐं अपने बच्चों को नज़रे बद से हिफ़ाजत की खातिर उनकी पेशानियों की एक ओर काजल लगाती हैं यह सारे काम नाजायज और हराम हैं, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ‘‘ जिसने तावीज़ लटकाया उसने शिर्क किया। (हदीस मुसनद अहमद)

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

अहले हदीस और मुसलिम


अहले हदीस दो शब्‍दों के मिश्रण से बना शब्‍द है, अहल और हदीस׀  हदीस का शाब्दिक अर्थ है बात, लेकिन जम्‍हूर मुहद्दिसीन की इस्तिलाह में नबी करीम सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम के कौल व फ़ैल (कथन व कर्म) और उस अम्र (आदेश) को जो आप सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम के सामने हुआ और आपने उसे मना न किया बल्कि उस पर खामोशी अख्तियार कर उसे जाइज़ रखा हदीस कहा जाता है׀
कुरआन मजीद में भी नबी करीम सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम की पाक बातों को हदीस कहा गया है׀ चनांचे अल्‍लाह तआला का इर्शाद है- और जब नबी करीम सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम ने अपनी बाज़ बीवियों से एक पोशीदा बात कही(तर्जुमा सूरह अल तहरीम 3)
हज़रत ज़ैद बिन साबित अन्‍सारी रजिअल्‍लाहु अन्‍हु से रवायत है कि रूसल सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम ने इर्शाद फ़रमाया- अल्‍लाह तआला उस शख्‍स को (हमेशा) तरोताज़ा रखे जिसने मेरी हदीस को सुनकर याद रखा (और) यहां तक कि उसे आगे (दूसरों) तक पहुंचाया׀ (हदीस अबू दाउद, तिर्मिजी, इब्‍न माज़ा)

कुरआन मजीद भी हदीस है
हज़रत जाबिर रजिअल्‍लाहु अन्‍हु से रवायत है कि रसूलुल्‍लाह सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम जुमा के खुत्‍बा में जबकि हज़ारों का मजमा होता था पुरज़ोर और बुलन्‍द आवाज़ में इर्शाद फ़रमाया करते थे- ‘’फ-इन्‍-न ख़ैरल हदीसि किताबुल्‍लाहि’’ (हदीस मुसलिम व मिश्‍कात) यानी बिला शुब्‍ह बहतरीन हदीस अल्‍लाह तआला की किताब (कुरआन मजीद) है׀
खुद कुरआन मजीद में अल्‍लाह तआला का इर्शाद है- अल्‍लाहु नज़-ज़ला अहसनल हदीसि (सूरह जु-म-र 23) यानी अल्‍लाह तआला ने बहतरीन हदीस नाजिल फरमाई है׀
और अल्‍लाह तआला ने फरमाया- ‘’वमन अस्‍द-कु मिनल्‍लाहि हदीसा’’ (सूरह निसा 87) यानी और अल्‍लाह ताआला की बात से बढ़ कर सच्‍ची बात किसकी हो सकती है׀
नेज़ फ़रमाया- ‘’फ़-ल-अल्‍ल–क़ बाखिउन नफ़-स-क अला आसारिहिम इंलम यूमिनू बिहाज़ल हदीसि अ-स-फ़’’ (सूरह कहफ़ 6) यानी ऐ मुहम्‍मद सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम, शायद आप इन लोगों के पीछे ग़म के मारे अपनी जान खो देने वाले हैं׀ अगर यह इस हदीस पर ईमान न लाये׀

निष्‍कर्ष -
उपर्युक्‍त आयाते करीमा और हदीसे नबवी सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम से यह बात रोज़े रोशन की तरह स्‍पष्‍ट हो जाती है कि कुरआन मजीद अल्‍लाह तआला की हदीस है और रसूलुल्‍लाह सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम का क़ौल व फ़ैल और तक़रीर आप सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम की हदीस है׀ इस प्रकार शब्‍द अहल का अर्थ बहुत खुला और स्‍पष्‍ट है यानी वाला׀
इस प्रकार साबित हुआ कि अहले हदीस का अर्थ है अल्‍लाह तआला की हदीस (कुरआन मजीद)और रसूलुल्‍लाह सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम की हदीस (क़ौल व फ़ैल और तक़रीर) को मानने वाला इन दोनों हदीसों पर कामिल  (पूर्णतः) तौर पर बगैर किसी उम्‍मती की इजाज़त और तक़लीद के एतिक़ाद (विश्‍वास) रखने वाला और अमल करने वाला׀
लक़ब  अहले हदीस का कुरआन मजीद से सबूत-
इसमें कोई शक नहीं कि अल्‍लाह तआला ने हमारा नाम कुरआन मजीद में मुसलिम रखा है जैसा कि अल्‍लाह ताआला का इर्शाद है- ‘’हु-व सम्‍माकुमुल मुसलिमी-न मिन क़ब्‍ल’’ (सूरह हज्‍ज 78) यानी अल्‍लाह तआला ने पहले ही से तुम्‍हारा नाम मुसलिम रखा है׀
जिस तरह हमें कुरआन मजीद ने मुसलिम कहा है उसी तरह अहले किताब को भी मुसलिम के खिताब से नवाज़ा गया है׀ चुनांचे अल्‍लाह तआला का इर्शाद है- ‘’और जब हमने (हजरत ईसा अलैहिस्‍सलाम के) हवारियों की तरफ़ वहीय भेजी कि मुझ पर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ, तब उन्‍होंने कहा हम ईमान लाए (ऐ ईसा अलैहिस्‍सलाम) तू गवाह रह साथ इसके कि हम मुसलमान हैं׀ (तरजुमा सूरह माइदा 111)
लेकिन इन मुसलमानों को फिर कुरआन मजीद इन शब्‍दों में हिदायत फ़रमाता है- ‘’वल यहकुम अहलुल इन्‍जीलि बिमा अन्‍ज़लल्‍लाहु फ़ीहि’’ (सूरह माइदा 47) यानी अहले इन्‍जील को अल्‍लाह तआला की नाजि़ल की हुई वहीय के मुताबिक़ ही फ़ैसला करना चाहिये׀

इससे यह बात रोज़े रोशन की तरह एकदम स्‍पष्‍ट हो गई है कि मुसलमान अपनी किताब की तरफ़ मन्‍सूब हो सकते हैं, जैसे ईसाइयों को मुसलमान होने के बावजूद अल्‍लाह तआला ने इन्‍हें अहले इन्‍जील के लक़ब से नवाजा है और इसी लक़ब से इन्‍हें खिताब किया गया है׀ इनकी किताब का नाम इन्‍जील था׀ हमारी किताब का नाम खुद किताब में ही हदीस रखा गया है और रसूलुल्‍लाह सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम का क़ौल व फ़ैल और तक़रीर भी हदीस है, जैसा कि पहले गुज़र चुका है׀
शब्‍द अहले हदीस कुरआन मजीद और तरीक़ा-ए-नबवी सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम दोनों को शामिल है׀ गोया कि अहले हदीस कहलाना मुसलिम होने के खि़लाफ़ नहीं है׀ हम मुसलिम भी है और अहले हदीस भी׀ जैसे ईसाई मुसलिम भी है और अहले इन्‍जील भी׀
...और मुसलिम का अर्थ है फ़रमांबरदार और अहले हदीस का अर्थ भी यही है यानी कुरआन मजीद और तरीक़ा-ए-नबवी सल्‍लल्‍लाहु अलैहि वसल्‍लम की ताबेदारी करने वाला׀
इस प्रकार अहले हदीस कहलवाने में किसी किस्‍म की क़बाहत नहीं है बल्कि सबूत कुरआन मजीद से बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट हो गया है׀

माखूज-‘’हम अहले हदीस क्‍यों हैं’’ मुअल्लिफ- मौलाना अब्‍दुल गफूर असरी, ‘अल किताब इन्‍टर नेशनल, जामिआ नगर, नई दिल्‍ली.

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

तलाशे हक- साबिक देवबन्‍दी आलिम की आपबीती (‘’मैं कैसे और क्‍यों अहले हदीस हुआ’’ मौलाना अब्‍दुर्रहमान, फा़जि़ल दारूल उलूम, देवबन्‍द )


तलाशे हक-  साबिक देवबन्‍दी आलिम की आपबीती (‘’मैं कैसे और क्‍यों अहले हदीस हुआ’’ मौलाना अब्‍दुर्रहमान, फा़जि़ल दारूल उलूम, देवबन्‍द )

मेरी जिन्‍दगी का पहला दौर
मैं एक किसान घरने में पैदा हुआ, जबसे होश संभाला वालिदेन और माहौल से यह तीन अकी़दे सीखे- नं0 1 हमारा खा़लिक़ अल्‍लाह तआला है और उसका कोई शरीक नहीं, नं0 2 हमारे पैग़म्‍बर हजरत मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम)  है और हम आपके (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम)  के उम्‍मती हैं , नं0 3 मरने के बाद दौबारा अल्‍लाह तआला जि़न्‍दा करके हमारे अमलों का हिसाब किताब लेगा और फिर बहिश्‍त या दोज़ख़ में भेज देगा. इसी तरह मैंने उनसे यह अकी़दा भी हासिल किया कि हम हनफ़ी है और मज़हब हनफ़ी है यानी हम इमाम अबू हनीफ़ा रहमतुल्‍लाह अलैहि  के मुक़ल्लिद हैं. कम उम्री के वक्‍त ज़हन में न किसी तन्‍की़द की क़ाबिलियत होती है और न ही कोई इन्‍सान मौरोसी अका़इद पर तन्‍की़द करना पसन्‍द करता है सो मैं भी इन्‍ही अका़इद को मौरोसी तौर पर अख्तियार करने के लिए तैयार  रहा  और उनसे दिली वाबस्‍तगी पैदा कर ली
और यही वह अकी़दा है जिनकी बिना पर एक आदमी अपने आपको मुसलमान समझता है. कलमा तैयबा तो तो हम लोग सिर्फ पढ़ते हैं अल्‍फा़ज़ का मतलब कुछ नहीं समझते. मैंने भी तबर्रकन ही यह कलिमा पढ़ना अपने माहौल से सीख लिया और माने व मतलब से कोई ग़रज़ न रखी. इसके बाद मैं इस्‍लामी तालीम हासिल करने के लिए घर से रूख़सत हो गया और मुख‍तलिफ़ असात्‍जा किराम से बेशुमार उलूम व फुनून पढ़ता रहा. सर्फ-नहव, मन्तिक़, फ़लसफ़ा, फलकियात, फि़क्‍ह, उसूल फि़क्‍ह बगैरह और जब इन उलूम के बारे में असात्‍जा से पूछा जाता कि हम यह उलूम क्‍यों पढ़ रहे हैं तो वह यह बताते कि इन उलूम के ज़रिये कुरआन व हदीस को इन्‍सान अच्‍छी तरह समझ सकता है. गौया इन उलूम की तालीम कुरआन व हदीस समझने के लिए दी जा रही थी. इस पर मुझे बारहा अपने असात्‍जा से यह अर्ज करना पड़ता कि आप इन उलूम के साथ साथ कुरआन व हदीस भी पढ़ाएं तो जवाब यह मिलता कि इनसे फ़ारिग़ होकर तुम आखि़री साल दौरा हदीस पढ़ोगे तो उस वक्‍त आपको कुरआन व हदीस का इल्‍म हासिल हो सकेगा.

यह पहला मौका था कि मेरे दिल को इस तर्जे अमल से एक धचका सा लगा मगर यह वक्‍़ती हादसा था जो दिल में आया और गुज़र गया और मेरे असात्‍जा़ का इसमें कोई क़सूर भी न था. इसलिए कि सारे मुआशिरे में वह निसाबे तालीम पढ़ा और पढ़ाया जा रहा था जो शाहजहां के दौर में एक सरकारी आलिम मुल्‍ला निजा़मुददीन ने मुरत्तिब किया था और इसी इस निसाब का नाम भी दर्से निजामी है और अहले हदीस के अलावा सब शीआ, सुन्‍नी, बरेल्‍वी और देव बन्‍दी यही निसाब आज तक पढ़ते पढ़ाते आ रहे हैं तो मेरे असात्‍जा भी इसी मुआशिरे में रहते थे. इसलिए उन्‍होंने भी यही निसाब पढ़ाना था और पढ़ाया. मेरे इन असात्‍जा़ में से बाज तो बुलन्‍द दर्जा के आलिम थे कि उनके फ़ैज़ से रब ने मुझे दौलते इल्‍म से नवाज़ा और मेरे दिल से हमेशा उनके लिए दुआएं निकलती हैं और इन उलामाए किरा ने ही मेरा यह ज़हन बनाया कि जो इल्‍म तुझे पढ़ाया जा रहा है यह खुदा की तरु़ से अमानत है जो हम तेरे सुपुर्द किये जा रहे हैं अब तेरा फ़र्ज है कि यह अमानत इस तरह दूसरे लोगों तक पहुंचा दो. इसी तल्‍क़ीन से मुतास्सिर होकर मैंने जिन्‍दगी के इब्तिदाई दस साल तालीम हासिल करने के लिए वक्‍फ किये और फ़राग़त के बाद भी बीस साल तालीम व तदरीस का काम करता रहा. अल्‍हम्‍दु लिल्‍लाह यह काम मैंने खा़लिसतन रजा़ए इलाही के लिए किया. अल्‍लाह तआला कुबूल फ़रमाए. (आमीन)
मेरा दूसरा दौर
बहर-हाल जब दौरे तालिब इल्‍मी का वह आखि़री साल आया जब मुझे दौरा हदीस पढ़ना था तो मैं इल्‍मे हदीस हासिल करने के लिए हिन्‍दुस्‍तान गया और देवबन्‍दी  मस्‍लक के मशहूर मदरसा दारूल उलूम में चोटी के उलमा से दौरा हदीस पढ़ा जिनमें मौलाना शब्‍बीर अहमद उसमानी रहमतुल्‍लाह अलैहि भी शा‍मिल थे जो मम्लिकते पाकिस्‍तान में शैखुल इस्‍लाम के मन्‍सब पर फ़ाइज़ रहे हैं. इन तमाम असात्‍जा किराम का इल्‍म हर कि़स्‍म के शक व शिब्‍ह से बालातर था. उनका तक़वा और दयानतदारी मुसल्‍लम थी मगर तरीक तालीम तो वही था जो तमाम हनफ़ी उलमा में मरव्‍वज था, चुनांचे दौरा हदीस के दौरान मरे दिल को दो बातों से ज़बरदस्‍त धचका लगा अव्‍वल यह कि दौरा हदीस में हदीस की छः किताबेपढ़ाई जा रही थीं जिनको सिहाह सित्‍ता कहते हैं यानी सहीह बुखारी, सहीह मुसलिम, सुनन अबू दाऊद, सुनन तिर्मिजी, सुनन निसाई, और सुनन इब्‍न माजा. इन सब किताबों के मुसन्निफ़ों में से कोई एक भी किसी इमाम का मुक़ल्लिद नहीं था और मेरे दिल पर यह बात भी बहुत गिरां गुज़री कि हदीसें जमा करने वाले मुहददिस उलमा में से कोई भी हनफ़ी नहीं था और न हनफ़ी उलमा की कोई हदीस की किताब हमारे दर्स में शामिल थी क्‍योंकि अहनाफ़ के हां ऐसी किताब है ही नहीं. दूसरी बात जिससे मेरे दिल को जबरदस्‍त चोट लगी वह हमारे असात्‍जा़ का साल भर उन हदीसों की तावीलों पर तवील तक़रीरें करना था जो हनफ़ी फि़क्‍़ह के खि़लाफ़ थीं. हत्‍ता कि बाज हदीसों पर तो दस दस दिन और महीना महीना तक़रीरें होती रहतीं जिनको हम तलबा याद भी करते और लखिते भी थे मगर इन तक़रीरों की हैसियत महज ग़लत तावीलों के सिवा कुछ भी नहीं था. मुझे याद है कि हमारे साथ दौरा हदीस में जज़ाइर मालाबार का एक शाफ़ई तालिब इल्‍मभी शरीक था वह कहा करता था हमारे असात्‍जा अपने मज़जब के मसाइल को दलाइल के बजाए मुक्‍कों के जो़र से साबित करते हैं और बाज असात्‍जा तो दौराने तदरीस जोश में तिपाई पर जो़र जो़र से मुक्‍के भी मारा करते थे. इस सूरते हाल से मेरा ज़हन मुतास्सिर हुए बगैर न रह सकामगर इसके बावजूद बीस साल में सिर्फ इस क़दर फि़क्ह की तर्दीद किया करता था कि जो मसाइल फि़क्ह में गरवही नहीं बल्कि शहनशाहों और जागीरदारों को खुश करने के लिए लिखे गये हैं वह गलत हैं. तो मेरी उस तर्दीद से हनफी़ उलमा नाराज़ हो जाया करते थे मगर इन्‍साफ़ पसन्‍द और तालीम याफ़्ता हजरात इसको पसन्‍द करते थ. खु़लासा यह कि मेरे ज़हनी इन्कि़लाब का यह दूसरा वाक़्या था.
मेरा तीसरा दौर
तीसरा वाक़्या यह हुआ कि मैं अपने बीस साला दौरे तदरीस में तलबा को तर्जुमा कुरआन और हदीस की इब्तिदाई किताब मिश्‍कात शरीफ़ को दर्स लाज़मी दिया करता था और यह दोनों मज़मून हनफ़ी निसाब में दाखिल नहीं थे. इब्तिदा में तालिब इल्‍म मुख़लिस होते थे और वह मेरे इस काम की क़दर करते थे मगर तक़सीम मुल्‍क के बाद तालिब इल्‍म मेरे इन जबरी असबाक़ को बेकार समझने लगे और मुल्‍क को तूल व अरज़ में मुझे इस काम पर मतऊन किया जाने लगा कि वह सख्‍त तबियत का मालिक है और तालिब इल्‍मों से जबरन बेगार लेता है. इनको जबरन तर्जुमा कुरआन और मिश्‍कात शरीफ़ नहीं पढ़ाना चाहिए. मैं अपने खि़लाफ़ इस कि़स्‍म के ताने और इल्‍जा़मात सुनता तो मेरी तबियम ऐसे तालिब इल्‍मों से बेजा़र हो जाती कि इन्‍सानों के लिखे हुए उलूम को शौक से पढ़ते हैं मगर अल्‍लाह और उसके रसूल (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम)  के अता कर्दा उलूम को पढ़ना बेकार समझते हैं. ऐसे लोगों को पढ़ाकर आलिम बनाकर मुझे खुदा के हां क्‍या अज्र मिलेगा, क्‍योंकि मैं उनको दुनिया के माल व मता के लिए तो नहीं पढ़ा रहा था मैं तो सिर्फ रजा़ए इलाही के लिए पढ़ा रहा था तो जब खुदा की किताब और पैग़म्‍बर (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) की हदीस के साथ उनका यह बर्ताव है तो उनको पढ़ाने से न पढ़ाना ही बहतर है.

मेरा चौथा दौर

चौथा वाक़्या यह हुआ कि आज कल दीनी मदरसे भी दुकानदारी बन कर रह गये हैं. और दीनी इल्‍म पढ़ने पढ़ाने वालों ने भी अपना मक़सद दुनिया हासिल करना ही बना लिया है. सदाकत और अमानतदारी से यह कोसों दूर हैं जैसा कि 1963ई0 की बात है कि लायलपुर (फैसलाबाद) शहर में नमाज़ तरावीह का इख्तिलाफी़ मसअला छिड़ गया. मुझे अच्‍छी तरह याद है कि बाजा़र की मसजिद अहले हदीस में एक आम जसले में इमामुल मनाजिरीन हज़रत मौलाना अहमद दीन साहब और रईसुल मुनाजि़रीन हज़रत मौलाना अब्‍दुल का़दिर रौपड़ी ने यह चैलेंज करके कहा कि अगर बीस रकात नमाज़ तरावीह कोई हनफ़ी आलिम साबित करना चाहे तो हम मुनाजरे के लिए तैयार हैं. मेरे मदरसे के दो तालिब इल्‍मों ने रूक्‍का लिखा कि हम इसके लिए तैयार हैं इन्‍होंने वापिस आकर मुझसे मुना‍ज़रे के लिए कहा तो मैंने कहा मुनाज़रों से मसाइल साबित नहीं हुआ करते. मैं जल्‍द ही नमाज़ तरावीह पर एक रिसाला लिखने वाला हूं. फिर जब मैंने रिसाला लिखने का अज्म किया तो चूंकि मैं भी दूसरे हनफ़ी उलेमा की तरह दीगर उलूम व फुनून का तो माहिर था, मगर हदीस चूंकि हमारे हां कोई पढ़ता ही नहीं था इसलिए हदीस में मुझे भी कोई महारत न थी, चुनांचे मैं रिसाले का मवाद हासिल करने के लिए मौलाना सरफ़राज़ खान सफ़दर के पास गया क्‍योंकि वह अहले हदीस मस्‍लक के खि़लाफ़ इख्तिलाफ़ी मसाइल पर किताबें लिखते रहते थे तो उन्‍होंने मुझे बीस रकात तरावीह के हक़ में दो दलीलें पेश कीं, एक मौत्‍ता इमाम मालिक (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  की रवायत थी जिसमें रावी बयान करता है कि हज़रत उमर (रजि़अल्‍लाहो अन्‍हो)के ज़माने में लोग रमजा़न की रातों में बीस रकात तरावीह के साथ क़याम किया करते थे. मौलाना सरफ़राज़ सफ़दर ने कहा चूंकि यह मौत्‍ता की रवायत है इसलिए यह मुसतनद है और दूसरी दलील यह पेश की कि सुनन बेहिकी में रवायत है कि नबी करीम (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) ने तीन दिन बा जमात जो नमाज़ तरावीह पढ़ाई थी वह बीस रकात थी. मौलाना सरफ़राज़ खान सफ़दर ने फ़रमाया कि इस रवायत में अबू शीबा नामक एक रावी है जिसको अहले हदीस ज़ईफ़ क़रार देते हैं मगर अस्‍माए रिजाल की किताब ‘मीजा़नुल ऐतदाल’ में लिखा है कि इमाम बुखा़री (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  ने इस रावी को ज़ईफ़ क़रार नहीं दिया और मुझे ‘मीजा़नुल ऐतदाल’ की यह इबारत निकाल कर दखिई और लिखवाई. इबारत यूं है कि अबू शीबा का जिक्र करते हुए मुसन्निफ़ लिखता है कि ‘’सकता अन्‍हुल बुख़ारी’’ यानी इस रावी के बारे में इमाम बुख़ारी (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  ने खा़मोशी इख्तियार फ़रमाई. मौलान साहब ने फ़रमाया कि इसका मतलब यह है कि इमाम बुखा़री (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  ने इस रावी पर कोई तन्‍की़द नहीं की और जब इमाम बुखारी (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  तनकी़द नहीं करते तो दूसरे मुहददिसीन की तन्‍की़द की क्‍या अहमियत है. मैंने वापिस आकर रिसाला लिखकर शाए करा दिया और यह इबारत भी लिख दी. इस पर एक अहले हदीस आलिम की तरफ़ से इश्तिहार शाए हुआ कि अगर मौलाना अब्‍दुर्रहमान यह साबित करदें कि बुखा़री (रहमतुल्‍लाह अलैहि) ने अबू शीबा को ज़ईफ़़ क़रार दिया तो मैं मौलाना साहब को एक हजा़र रूपये का इनाम दूंगा. जब मुझे यह इश्तिहार पहुंचा तो बड़ी हैरत हुई कि मीजा़ऩुल ऐतदाल में यह इबारत मैंने खुद देखी है तो फिर यह चैलेंज कैसा? फिर मैंने सोचा शायद जो जुमला मैंने नकुल किया है उसके सियाक़ व सिबाक में कोई इबारत रह न गई हो जो मैंने न देखी हो. चुनांचे मैंने बहालते रोजा़ लाहौर का सफ़र किया और किताब ‘मीजा़नुल ऐतदाल’ दो सौ रूपये में जाकर ख़रीदी और जब उस किताब का मुतालआ किया तो इबारत बिल्‍कुल दूरूस्‍त थी और उसके सियाक़ व सिबाक़ में भी कोई ऐसा लफ़्ज़ न था जिसमें इस जुम्‍ले की नफी़ होती हो मेरी हैरत और बढ़ गई और वापिस लायलपुर (फैसलाबाद) आ गया. यहां आकर ‘मीजा़नुल ऐतदाल’ का मुक़द्दमा पढ़ा तो वहां यह का़यदा लिखा हुआ था कि जब अस्‍नादे हदीस की बहस में यह जुम्‍ला आये कि ’सकता अन्‍हुल बुख़ारी’’ तो इसका मतलब यह होगा कि इमाम बुखा़री (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  या दूसरे मुहददिसीन (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  ने इस रावी को हद से ज्‍यादा ज़ईफ़ क़रार दिया और इसको इस इस का़बिल ही न समझा कि इसके मुताल्लिक़ कोई बहस की जाय. यानी वह नाका़बिले ऐतिमाद है और उसके मुताल्लिक़ कहा करते थे कि छोड़ो इस रावी को यह भी कोई मुहददिस है कि इस पर तवज्‍जो दी जाय यानी सिरे से यह इस का़बिल ही नहीं कि इसका मुहददिसीन की लिस्‍ट में नाम लिया जाय तो ’सकता अन्‍हुल बुख़ारी’’ का मतलब इस का़यदे के मुताबिक यह हुआ कि इमाम बुखा़री (रहमतुल्‍लाह अलैहि)  ने इसके मुताल्लिक कोई बात करना ही गवारा नहीं किा. जब यह हकी़क़त मुझ पर मुन्‍कसिफ़ हुई तो मैंने मौलाना सरफ़राज़ खान साहब को लिखा कि मज़हबी तअस्‍सुब में आकर दियानतदारी छोड़ देना एक आलिम के शायाने शान नहीं तो उन्‍होंने मुझे इसका कोई जवाब ही नहीं दिया. अर्से के बाद जब उनसे मुलाका़त हुई तो सिर्फ ज़बानी फ़रमाया कि मौलवी साहब ऐसे इख्तिलाफ़ी मसाइल में हकी़क़त यह है कि अहादीस हनफियों के खि़लाफ़ हैं बस ऐसे ज़ईफ़ सहारों से ही काम लेना पड़ता है. इससे मेरा ज़हन पर ज़बरदस्‍त चोट लगी और अफ़सोस हुआ कि दीन के मामले में यह तर्ज़े अमल तो खा़लिसतन यहूदी उलेमा का है चुनांचे इन वजूहात की बिना पर मैंने एक तरफ़ मदरसा चलाने से माजि़रत कर ली और दूसरी तरफ़ तक़लीदी ज़हनियत को बिल्‍कुल तरक कर दिया और गैर जानिबदार होकर आलमी मजाहिब का मुतालआ शुरू किया और मुसलमानों के मुख़तलिफ़ फि़र्कों का भी गै़र जानिबदारी से मुतालआ किया. कुरआन व हदीस को गै़र जानिबदार होकर समझना अपना नसबुल ऐन बना लिया. चुनांचे चन्‍द बरसों के मुतालआ के बाद मैं इस नतीजा पर पहुंचा कि मुसलमानों के इखतिलाफ़ी मसाइल में हक़ यह है कि जो कुछ कुरआन व हदीस में मिले उसको कुबूल किया जाय. और वह बातें जो कुरआन व हदीस के खि़लाफ़ हों उनको रद्द किया जाय, क्‍योंकि पैगम्‍बर (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के सिवा कोई इन्‍सान मासूम नहीं तो फिर हम गै़र मासूम इन्‍सानों की तक़लीद क्‍यों करें?  तरके तक़लीद न सिर्फ यह कि मैंने अपना मसलक बना लिया बल्कि मेरे नज़दीक किसी भी आलिम के लिए तक़लीद जाइज़ नहीं और ग़रीब अवाम तो उलेमा के ताबे होते हैं वह माज़ूर हैं, मगर उलेमा के लिए तक़लीद करना क़तअन हराम है जब एक मुसलमान कलमा ‘’लाइलाह इल्‍लल्‍लाह मुहम्‍मदुर्रसूलुल्‍लाह’’ पढ़ता है तो इसके पहले जुज़ का मतलब है कि इन्‍सान दिल से यह अहद करे कि मैंने अपना मालिक व हाकिम सिर्फ अल्‍लाह को बनाया है और उसी के हुक्‍मों पर मैंने चलना है और दूसरे जुज़ का मतलब है कि यह दौर है हज़रत मुहम्‍मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की नुबूवत का. लिहाजा़ अल्‍लाह का वही हुकुम मैने मानना है जो हज़रत मुहम्‍मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के ज़रिये मुझ तक पहुंचा है. हर मुसलमान जब दिल से सिर्फ़ अल्‍लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की बातों को मानने का अहद करता है तो फिर किसी मुसलमान के लिए यह क़तअन जाइज़ नहीं कि वह कुरआन व हदीस के सिवा किसी दूसरे इन्‍सान की तक़लीद करे और तअस्‍सुब में आकर आंखें बन्‍द करले. याद रखिये जिस तरह अल्‍लाह के सिवा किसी दूसरे का हुकुम मानना उलूहियत में शिर्क है उसी तरह हजरत मुहम्‍मद मुस्‍तफ़ा (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के सिवा किसी दूसरे का हुकुम मानना भी शिर्क फि़र्रिसालत है. तक़लीद तो अवाम के लिए भी हराम है और उलेमा के लिए तो इससे भी ज़यादा हराम है. मगर उलेमा इस जुर्म में अवाम की तरफ़ से भी जि़म्‍मेदार हैं क्‍योंकि वह अवाम को गिरोह बन्‍दी में बांट कर तक़लीद करने पर मजबूर करते हैं हालांकि ईमान का तका़जा़ यह है कि कुरआन व हदीस के मका़बले में किसी बड़े से बड़े शख्‍स की बात को भी ठुकरा दें. हज़रत अब्‍दुल्‍लाह बिन उमर (रजिअल्ला्हो अन्हो) का यह वाक्‍़या तारीख़े इस्‍लाम में मज़कूर है कि हज के मौके़ पर उनसे किसी ने मसअला पूछा तो आपने फ़रमाया इस मसअले में रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) का फ़रमान यह है तो साइल ने कहा आपके वालिद मोहतरम हज़रत उमर (रजिअल्ला्हो अन्हो) तो इसके खिलाफ़ बयान करते थे. हज़रत अब्‍दुल्‍लाह बिन उमर (रजिअल्ला्हो अन्हो)   गुस्‍से में आ गये और फ़रमाया क्‍या मुहम्‍मद रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) इत्तिबा किये जाने के ज्‍़यादा हक़दार हैं या हज़रत उमर (रजिअल्ला्हो अन्हो) ((‘अहकामुल अहकाम’ जिल्‍द-2बहस रदे तक़लीद)) यह है सच्‍चे ईमान की निशानी कि अल्‍लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के फ़रमान के खिलाफ़ ख्‍वाह किसी जलीलुल क़दर सहाबी की बात ही क्‍यों न हो उसको रद्द कर दिया जाय. यही दावत जमात अहले हदीस की है.

बिल आखि़र मैं अहले हदीस हो गया
अब मेरे सामने दो ही रास्‍ते थे एक तक़लीदी मज़हब का जिसका मतलब यह था कि जो मसाइल हनफ़ी फि़क्‍ह की किताबों में दर्ज हैं उनको मैं दिल से रब्‍बानी अहकाम मान कर उनके मुताबिक अमल करूं. दूसरा रास्‍ता रास्‍ता तहकी़की़ मज़हब का था कि मैं किताबुल्‍लाह और सुन्‍नते रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के मुताबिक़ अमल करने का अहद करता तो मैंने दियानतदारी से दूसरा रास्‍ता इख्तियार किया और पहले रास्‍ता को रद्द कर दिया यही दूसरा रास्‍ता मस्‍लक अहले हदीस है. जिसका मतलब किसी खा़स तबके़ की तक़लीद करना नहीं बल्कि कुरआन व हदीस पर ईमान लाकर उनके मुताबिक़ अमल करना है. लिहाजा़ मैंने मज़कूरा बाला मुख़तलिफ़ अदवार से गुज़रने के बाद मसलक अहले हदीस को इख्तियार किया और इसका ऐलान भी कर दिया. इसके बाद नमाज़ तरावीह, फा़तिहा ख़लफ़ुल इमाम, अहकाम नमाजे जनाजा़ बगै़रह जैसे मसाइल पर छोटे छोटे रसाइल भी तस्‍नीफ़ करके शाए करा चुका हूं ताकि दूसरे मुसलमानों को भी अल्‍लाह तबारक व तआ़ला हिदायत नसीब फ़रमा दे. और वह तक़लीद तरक करके सुन्‍नते रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) पर अमल पैरा होकर अपनी आकि़बत संवारें. इस मुख्‍़तसिर सी तहरीर का मतलब यही है कि अल्‍लाह तआला इसके मुतालआ से मुसलमानों को इत्तिबाए रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की तौफी़क अ़ता फ़रमाए (आमीन)
वमा अलैना इल्‍लल बलागुल मुबीन.