शुक्रवार, 16 मार्च 2012

अ़दम रफ़उलयदेन (रफ़उलयदेन न करने) की एक हदीस दिखा दे उसको 50,000.00 पचास हजा़र नक़द इनाम


हाजी सैफुल्लाह तौहीदी
                        नहमदूहु वनु सल्लि अला रसूलिहिल करीम..........अम्मा बाद
 मैं अपने अहले हदीस होने के मुतअल्लिक़ ईमानदारी से तहरीर करूंगा क्योंकि बहैसियत मुसलमान झूट बोलना कबीरा गुनाह (महापाप) है।
 मेरा पूरा नाम डाक्टर व हाजी सैफुल्लाह तौहीदी वल्द चौधरी नूर मुहम्मद, जट बिरादरी से मेरा ताल्लुक़ है, मैं ज़िला गुजरांवाला में सन् 1957 को पैदा हुआ और मेरे खानदान में न तो कोई आलिमे दीन गुज़रा है न ही कोई अच्छी पोस्ट पर कोई मूलाज़िम है, हमारा पेषा शुरू से ज़मींदारी था।
 मैं जब पैदा हुआ तो दो साल की उम्र में था कि मेरी वालिदा मौहतरमा वफ़ात पा गईं, मेरे वालिद मौहतरम उस वक्त गांव में चौधरी टाइप के आदमी थे। वालिदा के फौ़त होते ही हमारे दिन बदल गये, निहायत ही ग़रीबी की चक्की में पिसने लगे तो इसलिए किसी खा़स उस्ताद से तालीम हासिल न कर सकता था। स्कूल की तालीम के साथ कुरआन मजीद अपने ही गांव के विभिन्न उस्तादों से पढ़ता रहा, स्कूल की तालीम से फ़ारिग़ होने के बाद आर्मी में मुलाज़िम हो गया।
 मैं मसलक अहले हदीस से इस तरह परिचित हुआ कि मेरी अहले हदीस लोगों दोस्ती और ताल्लुका़त काफी थे जो कभी-कभी मुनाजरे की ष्शकल में हम एक दूसरे से बहस बगैरह भी करते। सन् 1989 को मैं और एक साथी कोट सुब्हाना गये जो जिला गुजरांवाला का एक गांव है तो हमने नमाज़ जुहर अहले हदीस मस्जिद में अदा की तो मस्जिद में एक चैलेंज का पोस्टर लगा हुआ मैंने पढ़ा जिस पर मुबलिग़ 50,000/- लिखे हुये थे जो आदमी अ़दम रफ़उलयदेन (रफ़उलयदेन न करने) की एक हदीस दिखा दे उसको 50,000.00 पचास हजा़र नक़द इनाम दिया जायेगा, यह पोस्टर मुनाजर-ए-इस्लाम मुहक्क़िक आलिमे दीन मौलाना मुहम्मद अषरफ़ सलीम क़िला दीदार सिंह वाले की तरफ़ से था, इष्तहार पढ़ने के बाद मेरा दिल दहल गया और उस दिन से सोचों में डूब गया, क्योंकि यह मेरा ज़िन्दगी का पहला चांस था, बहरहाल मैं हाफ़िजाबाद शहर गया और मौलाना हबीबुर्रहमान यज़दानी शहीद मिल्लत की फिक्र आखिरत की तक़रीर जो गुजरांवाला शहर की ले आया और सुनता रहा, जब मैंने देखा कि अहले हदीस अल्लाह तआ़ला के मौहतरम नबी की इतनी इज्ज़त करते हैं तो फिर मैंने सोचा अब कोई  फैसला करना होगा लेकिन एक बात मुझे अहले हदीस होने से मना करती थी कि हजरत मौलाना गुलामुल्लाह खां रावलपिण्डी वाले और मौलाना सैयद इनायतुल्लाह शाह बुखा़री गुजरात वाले दोनों आ़लिमों से मैं बेपनाह मुहब्बत रखता था मेरे दिलमें यह वस्वसे पैदा होते कि अहले हदीस मसलक हक़ पर है तो इतने बड़े आ़लिमों ने क्यों न क़बूल किया।
  खैर बात लम्बी न हो जाय, जुलहन में हमारे प्यारे महरबान और मेरे दिल व जान से प्यारे साथी मुनाजरे इस्लाम बल्कि रईसुल मुनाजरीन फ़ातेह हनफ़ियत मौलाना अब्दुल रषीद अरषद जो कि अपनी मस्जिद अहले हदीस में ख़ुत्वा जुमा देते हैं उनके पीछे कुछ जुमे पढ़े तो मैं मुतज़लज़िल सा होने लगा तो फिर वही ख्याल आता कि मेरे दोनों कितने बड़े आलिमे दीन थे और हैं। इस फ़िक़रे की  वजा़हत ज़रूरी है। मौलाना गुलामुल्लाह खां तो सन् 1980 में वफा़त पा चुके थे। मगर मेरी उनसे तौहीद की निस्बत से वालिहाना मौहब्बत थी, जबकि मैंने उनको देखा भी नहीं था, तो शाह साहब जिन्दा थे, उनका मैं मुरीद भी था।
 मैंने अपना मसलक इसलिए वर्क (छोड़ा) किया कि हमसे जब अहले हदीसों की बहस होती तो हम अपने इमाम अबू हनीफ़ा की फ़िक्ह से दलाइल देते और अहले हदीस, हदीस से जवाब देते, बहस के बाद हम सोचते कि यह लोग हदीस के अलावा बात नहीं करते जो कि असल दीन है, और हम इमाम की बात करते हैं, यह चक्करबाजी़ क्या है।
 यूं तो मैं मसलक अहले हदीस के उलेमा की इज्ज़त करता था और अभी तो इंषा अल्लाह दिल व जान से हमारे अन्दर उलेमा परस्ती बहुत पाई जाती थी। देवबन्दियों में तो इस लिहाज़ से हर आलिम का ताबेदार था, लेकिन जिन शख्सियत से मैं मुतास्सिर हुआ उनमें अल्लामा अहसान इलाही ज़हीर और अल्लामा हबीबुर्रहमान यज़दानी और मुनाजिरे इस्लाम सुल्तानुल मुनाजिरीन हजरत मौलाना अब्दुल क़ादिर रोपड़ी साहब और हजरत मौलाना मुहम्मद अषरफ़ सलीम मरहूम और हजरत मौलाना प्यारे साथी मुनाजिरे इस्लाम क़ाजी़ अब्दुर्रषीद अरषद जिला गुजरांवाला वालों की शख्सियत से मैं बेहद मुतास्सिर हुआ, क्योंकि हम अहले हदीसों में कोई आलिम समझते ही नहीं थे, बस जो कुछ है देवबन्द में है, किताब मैंने अहले हदीसों की कोई नहीं पढ़ी अलबत्ता जब यह लोग हदीस की बात करते तो बुखारी व मुसलिम से बड़ी कौन सी है।
 तब्दीली मसलक के बाद मेरे गांव में दोस्तो यारों में से रिष्तेदारों में बहुत असर हुआ, मेरे तमाम रिष्तेदार मेरी वजह से अहले हदीस हो गये हैं और गांव में भी। हम वक़्त तक़रीबन दस के क़रीब अहले हदीस हो गये थे, मज़मून लम्बा न हो जाये, मेरी वजह से तक़रीबन अल्हम्दु लिल्लाह बस्ती के क़रीब क़रीब सब लोग अहले हदीस हो चुके हैं यह मेरे रब का फ़जल है, मेरी कोई  कारगर्दिगी नहीं।
 नये माहौल में आ कर जो तब्दीलियां मैंने महसूस की हैं वह मैं लिख नहीं सकता, बस यह समझ लें कि अहले हदीसों से देवबन्दियों में ज़मीन व आसमान का फ़र्क़ है, अहले हदीस के दो उसूल (अतीउल्लाह व अतीउर्ररसूल) हैं। जबकि देवबन्दी मुक़ल्लिद हैं, बात बात पर अपने अकाबिर की बातें करते हैं, जबकि अहले हदीस के सीने में मुहब्बते रसूल है वह दुनिया के किसी मज़हब, गिरोह, टोले में नहीं पाई जाती, हम जब भी देवबन्दियों के जलसे में जाते हैं तो खु़त्बे के बाद अकाबिरीन की बातें होतीं, और अल्लाह की क़सम उठा कर कहता हूं अहले हदीसों के स्टेज पर हमने जो मुहब्बते रसूल देखी है बयान से बाहर है।
 मेरे नज़दीक एक ही बात है कि साबिक़ा (पहले वाला) मसलक में फ़िक्ह हनफ़ी को खूब उछाला जाता है ताकि पूरी दुनिया पर फ़िक्ह हनफ़ी हो जाय जो कि सरासर बातिल पर मबनी (टिका) है, बुनियादी फ़र्क यह है कि देवबन्दी हजरात अपने उलेमा की बहुत तारीफ़ करते हैं जबकि अहले हदीस अपने उलेेमा की तारीफ़ और इज्ज़त व तौकी़र के साथ-साथ बात सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह के नबी की मानते हैं, क्योंकि उनके नज़दीक हुज्जत (दलील) बात प्यारे नबी की है जो हमें अपनी जान से भी प्यारे हैं।
 मेरे नज़दीक मसलक अहले हदीस की तबलीग़ का बहतर तरीका़ यह है कि लोगों को सिर्फ़ कुरआन व सुन्नत से परिचित करवाया जाय, और सब्र व तहम्मुल से काम लिया जाय और दायी (दावत देने वाले) हजरात दावत देते वक्‍त सब्र का मुकम्मल मुजाहिरा करें, लोगों को फ़िक्ह हनफी के मसाइल से परिचित करवायें और ख़तीब हजरात दलाइल की रोशनी में बात किया करें और मस्जिदों को दावत के लिए बहतरीन तरीके़ से मका़म का दार्जा दें और दावत देते हुए कुरआन व हदीस के अलावा कोई बात न करें, मगर हस्बे ज़रूरत तो इनशा-अल्लाह यह दावत का कामयाब रहेगी।
पैदाइशी और नसली हामिलीन मसलक अहले हदीस के नाम पैगा़म और आखिरी बात मेरे ख्याल में और तजरबे से यह बात साबित है कि पैदाइशी अहले हदीस हैं वह सिर्फ नाम के अहले हदीस हैं तमाम रस्म व रिवाज में हिस्सा लेते हैं, दाढ़ी को खूब चट करवाते हैं और नमाज़ तक नहीं पढ़ते, हम जब छोटे-छोटे होते थे तो हम सुनते थे कि अहले हदीस नमाज़ नहीं छोड़ते, बड़े पक्के नमाजी़ होते हैं, मगर अब अफ़सोस से यह बात कहनी पड़ती है कि वह अहले हदीस ही नहीं जो नमाज़ न पढ़े।
 अपने बच्चों को मका़मी मदरसों में दाखि़ल करवायें ताकि घर में दीनी माहौल बन जाय। और आप जो नसली तौर पर अहले हदीस हैं आपमें लोगों से नुमायां फ़र्क़ होना चाहिये। क्योंकि आप अहले हदीस हैं।
जो उलेमा-ए-किराम तावीज़ धागा करते हैं उनके नाम पैगा़म है कि आप अल्लाह से डरें, जबकि कुरआन में ‘निस’ मौजूद नहीं तो आप क्यों यह काम करते हैं। मेरे सामने चार साथियों ने एक आलिमे दीन को तावीज़ के हवाले से लाजवाब कर दिया और मौलवी साहब एक औरत को छुरी से दम कर रहे थे तो मैं और मेरे साथी ने पूछा तो कहने लगे दलील तो कोई नहीं मगर अगर। तो बात यह है यह बातें हमें नहीं करनी चाहियें जो दूसरे मसलक में खिलाफे़ शरीयत पाई जाती हों। अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो अल्लाह माफ़ करे। अल्लाह हाफिज़।
उलेमा-ए-देवबन्दी से बहस व मुबाहिसा
 मैं डाक्टर सैफुल्लाह तौहीदी जो 1995 को अहले हदीस हुआ, उसकी वजह आप ऊपर वाले सफ़हात (पृष्ठों) में पढ़ चुके हैं अभी मैं आपको वह बातें बताऊंगा जो मेरी उलेमा ए देवबन्द से बहस और सवालों की शकल में हुई।
 तकरीबन 1990 का वाक्या है हम चूंकि देवबन्दी थे तो ज़ाहिर है कि हम नमाजें भी उधर ही पढ़नी थी, मैं जामा मस्जिद तौहीदिया देवबन्दी का खजांची भी था और जब मसलक अहले हदीस अख्तियार कर लिया तो फिर खजांची के तौर पर काम करता रहा, हम सब साथियों ने मिल कर प्रोग्राम बनाया कि हजरत मौलाना शहाबुद्दीन खालिद साहब का प्रोग्राम करवाया जाये जो कि देवबन्दियों की शाख ममाती के आलिमे दीन हैं और अभी हयात हैं। तो हमने प्रोग्राम की तारीख़ तय की और खाने का इन्तिजा़म भाई मुहम्मद यूनुस अन्सारी के घर में हुआ जो कि अहले हदीस हैं मैंने अपने ससुराल से कुछ आदमियों की दावत दी और वनी जो कि एक गांव है वहां से भी लोग आए। यह दोनों गांव वाले अहले हदीस थे तो मस्जिद में काफ़ी रौनक़ हो गई, जलसा कामयाब हो गया मगर हमारे लिए नुक़सानदह साबित हुआ, लेकिन बाद में फ़ायदेमंद साबित हो गया।
 जब हजरत साहब ने बयान शुरू किया तो कुछ मसाइल करने के बाद उन्होंने अहले हदीसों को कोसना शुरू कर दिया, तक़रीबन आधे घंटे उन्होंने मसलक अहले हदीस पर काफ़ी कीचड़ उछाला, जलसा खतम होते ही अहले हदीस साथी जो कि साथ वाले गावं से तषरीफ़ लाए थे, उन्होंने बहुत नाराज़गी का इज़हार किया और कुछ साथी इसरार करने लगे कि मौलाना से मसअला पूछना चाहते हैं तो मैंने अर्ज की आओ पूछ लेते हैं। यह कौन सी बात है। तो ज़्यादा नाराज़ होकर चले गये तो कुछ साथी रह गये मौलाना हुजरे के बरआमदे में चले गये उनके साथ का़री मुहम्मद अब्बासा देवबन्दी भी थे, याद रहे मस्जिद हाजा़ के ख़तीब जो बड़े भाई मौलाना लियाक़त अली साहब थे, जिन्होंने मौलाना मुहम्मद अषरफ़ सलीम साहब की तबलीग़ से मुतास्सिर होकर जिला गुजरात में खुतवा जुमा पर अहले हदीस होने का ऐलान किया था, मगर देवबन्दियों ने मेरे भाई को मजबूर करके दोबारा हनफ़ी बना लिया, अभी आपके दिल में एक सवाल पैदा होगा कि आपने लिखा है कि मेरे ख़ानदान में कोई आलिम नहीं है तो बात यह है कि मेरे भाई जान जो कि मेरे बड़े भाई भी हैं वह भी मेरी तरह ही थे, बाका़यदा मदरसे से फ़ारिग़ नहीं थे।
 तो हम साथी मसअला पूछने के लिए अल्लाम साहब की खिदमत में हाजिर हो गये, और जो सवाल व जवाब उनसे हुए उनकी मैं किसी किस्म की कोई गलत बयानी नहीं वह भी ज़िन्दा हैं, हम इनषा-अल्लाह अब भी बात करने को तैयार हैं।
 डाक्टर सैफः- मौहतरम अल्लामा साहब मैं एक अनपढ़ और जाहिल आदमी हूं, कुछ सवाल करना चाहता हूं आपसे आप महसूस तो न करेंगे। अगर कोई गलती हो गयई तो पेषगी माज़िरत चाहता हूं।
 मौलाना साहबः- हां आप सवाल करें, हम उलेमा किस लिए होते हैं।
 डा0 सैफ़:- मेरा सवाल यह है कि अल्लाह के नबी हदीस पाक है कि यहूदी व नसारा के 72 फ़िर्के़ बने हैं, मेरी उम्मत के 73 फ़िर्के़ होंगे और जन्नत में सिर्फ एक फ़िर्का़ जायेगा, क्या यह हदीस ठीक है?
  मौलाना साहबः- हां यह हदीस पाक ठीक है।
 डा0 सैफ़ः- तो फिर आप फ़रमायें जन्नत में मुक़ल्लिद जायेंगे या गै़र मुक़ल्लिद?
 मौलानाः- मुक़ल्लिद।
 डा0 सैफ़ः-  मुक़ल्लिदों में हनफ़ी, मालिकी, शाफ़िई, हंबली कौन से मुक़ल्लिद जन्नत में जायेंगे।
 मौलानाः- हनफ़ी मुक़ल्लिद।
 डा0 सैफ़ः- हनफ़ी मुक़ल्लिदों में से बरेल्बी या देवबन्दी?
 मौलानाः- हनफ़ी मुक़ल्लिद देवबन्दी।
 डा0 सैफ़ः- देवबन्दियों से हयाती या ममाती?
 मौलानाः- देखो मैं कोई प्रोफ़ेसर हूं कि आप कह रहे थे कि मैं अनपढ़ जाहिल हूं, आप तो ठीक ठाक किसी के चांडे हुए नज़र आते हैं, यह कोई बात है।
 डा0 सैफ़ः- मौहतरम मैंने कौन सी बात पूछी है आप गरम होने लगे हैं, आप पर यह लाज़िम आता है कि आप हदीस नबवी
से दिखायें कि जन्नत में हनफ़ी मुक़ल्लिद देवबन्दी जायेगा और साथ-साथ यह भी बताना होगा कि सहाबा मुक़ल्लिद थे या गै़र मुक़ल्लिद?
 मौलानाः- सहाबा मुक़ल्लिद थे।
 डा0सैफ़ः- किसके मुक़ल्लिद?
 मौलानाः- एक-दूसरे के।
 डा0 सैफ़ः- तो फिर फ़िक्ह सिद्दीकी़, फ़िक्ह फ़ारूकी, फ़िक्ह हैदरी क्यों न चल सकीं वह फ़िक्ह हनफ़ी से कमजो़र थीं क्या?
 मौलाना
ः- आप नमाज़ में सूरह फ़ातिहा इमाम के पीछे क्यों पढ़ते हैं?
 डा0 सैफ़ः- आप पहले मेरे सवालों का जवाब दें, फिर सूरह फ़ातिहा पर बहस होगी।
 क़ारी अब्बासः- डाक्टर साहब आप हजरत साहब को क्यों तंग कर रहे हैं, बहस खतम करें और घर जायें।
 डा0 सैफ़ः- क़ारी साहब आप हमारे महमान गिरामी क़दर हैं, गरम न हों मसअला पूछने में मौलाना पसीना साफ़ कर रहे हैं।
 मौलानाः- लाओ कुरआन यह सूरह फ़ातिहा पढ़ते हैं।
 डा0 सैफ़ः- देखो कुरआन मजीद अल्हम्दु लिल्लाह लाओ, हम कुरआन को इनशा-अल्लाह सुनने आये हैं, मगर मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं। 
 इतने में एक आदमी कुरआन मजीद लेकर आ गया।
 मौलानाः-देखो यह कुरआन की आयत है-‘‘व इजा कुरीअल कुरआ-न फस तमिऊ लहु वनसितू ल अल्लकुम तुर हमून‘‘ (सूरह ऐराफ़-203) जो कि इमाम के पीछे पढ़ने से रोक रही है, अहले हदीस इमाम के पीछे सूरह फ़ातिहा पढ़ते हैं उनके पास कोई जवाब नहीं, फ़ातिहा कुरआ़न नहीं।
 डा0 सैफ़ः- मौहतरम जनाब मौलाना साहब मेरे सवालों का जवाब आपने बयान फ़रमाया, और चल दिये अगले मसअले की तरफ़ तो चलो पहले
यह मसअला हल कर लेते हैं, आपने जो कुरआन की आयते मुबारका तिलावत फ़रमाई है उसके आगे वाली आयत पढ़ कर सुनायें। मौलाना साहब, आगे वाली आयत क्या कहती है उसका मतलब और है।
 मौलाना- सैफुल्लाह साहब मौहतरम आप आयत तिलावत तो करें मैं उसका मतलब बयान करूंगा।
 डा0 सैफ़ः- मौलाना साहब आप वह आयत नहीं पढ़ते तो मैं पढ़ देता हूं ‘‘वज कुर रब्बि-क फी नफ सिक ...
 मौलानाः- क्या यह आयत कहती है कि इमाम के पीछे पढ़ो?
 डा0 सैफ़ः- हॉं यह आयत कह रही है, गा़फ़िलों में न हो जाओ अपने दिल में आजिज़ी से याद करो। यह आयत कह रही है पढ़ो, पिछली कहती है चुप रहो। जनाव मौलाना साहब आपका किस पर अ़मल होगा। न पिछली सूरत सूरह फ़ातिहा से रोकती है न अगली पढ़ने का हुकुम देती है। इसका शान-ए-नुजू़ल इस आयत का जवाब है जो सूरह हा मीम सजदा की आयत नम्बर 26 है
तो मौहतरम काफ़िरों लिए जवाब है, जब दोनों सूरतें मक्की हैं उनका ताल्लुक़ फ़ातिहा से नहीं है।
 मौलानाः- तौबा तौबा, अल्लाह काफ़िरों को कह रहे हैं, कुरआन सुनो और ख़ामोश रहो। डाक्टर साहब तौबा करें, आपने बहुत ग़लती की है।
 डा0 सैफ़ः- मौहतरम मैंने ग़लती नहीं की, मैंने तो आयत का शाने नुजूल बताया है, जब फा़तिहा मदीना में फर्ज़ हुई ये दोनों सूरतें मक्की हैं।
 अल्लाह के रसूल की हदीसे पाक है-
‘‘ ला सला-त बिफातिहतिल किताब‘‘ (बुखारी) उसकी नमाज़ नहीं होती जो सूरह फ़ातिहा न पढ़े।
 मौलानाः- इस हदीस पाक में मुक्तदी का लफ़्ज़ नहीं। और डाक्टर कहता था कि अनपढ़ हूं, देखो यह अनपढ़ है यह किसी उस्ताद का सिखाया पढ़ाया हुआ है।
 डा0 सैफ़ः- मौलाना साहब अगर हदीस पाक में मुक्तदी का
लफ़्ज़ नहीं तो इमाम का लफ़्ज़ भी तो नहीं ‘’ आम खि़ताब है वह कौनसा लफ़्ज है जो हदीस को खा़स करता है आप बतायें ‘‘ला नबी बअ़दी’’ मेरे बाद नबी कोई नहीं होगा। ‘ला’ नफ़ी का सीगा़ है। अल्लाह के नबी की हदीस पाक बुख़ारी शरीफ़ की है। चाहिये तो था कि मेरे सवालों का जवाब देते मगर आप मुनाज़िरे पर उतर आये हैं।
 मौलानाः- भाई मुनाज़िरे की बातें तो आपने की हैं, हम तो तक़रीर के लिए आये थे।
 डा0 सैफ़ः- आप अगर तक़रीर के लिए आये थे तो तक़रीर की हद तक रहते, आपने बे-उसूल बात की है। यहां पर मौलाना लियाक़त अ़ली बोल पड़े कि आप लोग सहाबा को हुज्जत (दलील) नहीं मानते।
 डा0 सैफ़ः- आप देवबन्दी मानते हैं तो फिर हजरत उमर रजिअल्लाहो अन्हु ने ग्यारह रकात रमजा़न में पढ़ाई हैं, आप लोग क्यों बीस रकात और तीन वित्र पढ़ते हैं, जबकि आपके उलेमा ने भी इक़रार किया है ग्यारह रकात का। इस जगह पर एक आदमी ने बाहर से आवाज़ लगा दी कि डाक्टर साहब मरीज़ तंग है, बराए महरबानी जल्दी करें। तो बात ख़तम हो गई। तक़रीबन डेढ़ बजे रात को हम चले गये।
 क़ारिईन किराम! आप खुद सोचें इस मजमून से मौलाना शहाबुद्दीन के इल्म को दाद दें उनके पास क्या है। अल्लाह समझ की तौफ़ीक अता फ़रमाये।

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

मौलाना अशरफ़ अली थान्‍वी साहब की किताब बहिश्‍ती जेवर के चटपटे कियासी मसाइल जो फिक्‍ह हनफिया का नमूना हैं-

1.    छोटी लड़की से अगर किसी मर्द ने सोहबत की जो अभी जवान नहीं हुई है तो उस पर गुस्‍ल वाजिब नहीं है, लेकिन आदत डालने के लिए गुस्‍ल कराना चाहिये. (हिस्‍सा अव्‍वल मसला नं0 5)

2.    मुर्दार की खाल को जब धूप में सुखा डालें या कुछ दवा बगैरह लगा कर दुरूस्‍त कर लें कि पानी मर जाय और रखने से खराब न हो तो पाक हो जाती है.

3.    इस पर नमाज पढ़ना दुरूस्‍त है.


4.    और मशक बगैरह बनाकर इसमें पानी रखना भी दुरूस्‍त है लेकिन सुअर की खाल पाक नहीं होती.


5.    और सब खालें पाक हो जाती हैं मगर आदमी की खाल से कोई काम लेना और बरतना गुनाह है. (!?!?!)  (हिस्‍सा अव्‍वल मसला नं0)


6.    कुत्‍ता, बिल्‍ली, बन्‍दर, शेर बगैरह जिनकी खाल बनाने से पाक होती है बिसमिल्‍लाह कह कर जिब्‍ह करने से भी खाल पाक हो जाती है चाहे बनाई हो या बे-बनाई हो, अल्‍बत्‍ता जिब्‍ह करने से इनका गोश्‍त पाक नहीं होता और इनका खाना दुरूस्‍त नहीं. (हिस्‍सा अव्‍वल मसला नं023)


7.    मुर्दार के बाल और सींग और हडडी और दांत यह सब चीजें पाक है.


8.    अगर पानी में पड़ जाय तो नजिस न होगा, अल्‍बत्‍ता अगर हडडी और दांत बगैरह पर उस मुर्दार जानवर की कुछ चिकनाई बगैरह लगी हो तो वह नजिस है और पानी भी नजिस हो जायेगा. (हिस्‍सा अव्‍वल मसला नं0 24)


9.    अगर पेशाब की छींटें सुई की नोक के बराबर पड़ जावें कि देखने से दिखाई न दें तो इसका कुछ हर्ज नहीं धोना वाजिब नहीं (हिस्‍सा दोयम मसला नं0 11)


10.           हाथ में कोई नजिस चीज़ लगी थी इसको किसी ने ज़बान से तीन दफ़ा चाट लिया तो भी पाक हो जायेगा मगर चाटना मना. ( हिस्‍सा दोयम मसला नं0 26)


11.            किसी मर्द ने किसी औरत से जि़ना किया तो अब उसकी औरत की मां और उस औरत की औलाद को उस मर्द से निकाह करना दुरूस्‍त नहीं. (हिस्‍सा चहारम मसला नं0 17)


12.           किसी औरत ने जवानी की ख्‍वाहिश के साथ किसी मर्द को बद नियती से हाथ लगाया तो अब उस औरत की मां और औलाद को उस मर्द से निकाह करना जाइज़ नहीं, इसी तरह अगर किसी मर्द ने किसी औरत पर हाथ डाला तो वह मर्द उसकी मां और औलाद पर हराम हो गया. (हिस्‍सा चहारम मसला नं0 18)

13.           अगर किसी औरत के बच्‍चा पैदा हुआ और खून बिल्‍कुल न निकले तो उस पर गुस्‍ल फ़र्ज न होगा. (कुछ समझे नाम निहाद ‘हकीमुल उम्‍मत’ थान्‍वी की इस ‘हिकमत’ को हिस्‍सा 11 मसला नं0 4)

14.           अगर कोई लड़का इशा की नमाज़ पढ़ कर सोए और बाद तुलू फज्र के बेदार होकर मनी का असर देखे जिससे यह मालूम हो कि उसको अहतलाम हो गया है तो उसका चाहिए कि इशा की नमाज़ का इआदा करले यानी दोहरा ले. (आखिर क्‍यों भई? हिस्‍सा 11 मसला नं0 2)


15.           मैयत के कफ़न पर बगैर रोशनाई के वैसे ही अंगुली की हरकत से कोई दुआ मिस्‍ल अहद नामा बगैरह लिखना या उसके सीने पर बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्हरहीम और पेशानी पर कलिमा ला इलाह इल्‍लल्‍लाह मुहम्‍मदुर्रसूलुल्‍लाह लिखना  जाइज़ है मगर किसी हदीस से इसका सबूत नहीं. (हिस्‍सा 11 मसला नं0 14)

पाठको! यह है मौलाना अशरफ़ अली थान्‍वी साहब की किताब तथाकथित बहिश्‍ती जेवर (असल में इसका नाम ‘दोज़खी जेवर होना चाहिए था) के कुछ मसाइल जो फिक्‍ह हनफी के बतौर नमूना आपके सामने पेश हैं, इससे भी ज्‍यादा हयासोज़ मसाइल इस किताब में भरे पड़े हैं कि यहां पर इतने पर ही इक्तिफ़ा करना बहतर समझा गया. क्‍या यह किसी भले और शरीफ आदमी को अपील करते हैं? हरगिज़ नहीं. और यह वह मसाइल हैं जो मौजूदा तकलीदे शख्‍सी की वजह से मुकल्लिदों में पैदा हो गये हैं और जिन पर अमल करना आज तक़लीद कहा जाता है और जिनके न मानने की वजह से हमें गैर मुकल्ल्दि कहा जाता है, जिन मसाइल को तहक़ीक़ और कुरआन व हदीस से कोई दूर का भी सरोकार नहीं बल्कि उमूमन यह मसाइल कुरआन व हदीस और इंसानी फि़तरत के भी खिलाफ़ हैं. और उस पर यह कमाल व ताज्‍जुब की बात यह कि यह किताब औरतों के लिए हुक्‍मे हक़ की रहबर है और मर्दों के लिए शोर व शर से मुहाफि़ज़ है. क्‍या अजब जिस तक़लीद ने ऐसे मसाइल मनवाए हैं जब इन मसाइल की बुराई ज़हन नशीं हो जाय तो इस तक़लीद को खैर बाद कह दी जाय.