शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

‘छिक्‍कू’



हज़रत अस्‍मा रिवायत करती हैं कि अबू बक्र (रजिअल्‍लाहु अन्‍ह) ने एक चादर में नमाज़ पढ़ाई जो उन्‍होंने आधी नीचे बांध ली और आधी पर लेकर अपने कंधों पर बांध ली. अस्‍मां फ़रमाती हैं मैंने पूछा कि कपड़े तो और भी थे तो आपने एक चादर में नमाज़ क्‍यों पढ़ाई? फ़रमाने लगे इसलिए कि रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने जि़न्‍दगी की आखि़री नमाज़ एक चादर में ही पढ़ाई थी.
    यह कोई मस्‍अला नहीं, मस्‍अला तो यह है- जिसके कंधे नंगे हों उसकी नमाज़ नहीं होती, अगर टोपी शर्त होती रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) को यह फ़रमाना चाहिये था कि जिसका सि‍र नंगा हो उसकी नमाज़ नहीं होती. अहराम की हालत में
सब हाजी मक्‍का मुकर्रमा में नंगे सिर नमाज़ पढ़ते हैं कोई ऐतराज़ नहीं कि जनाब नगे सिर नमाज़ नहीं होती. तीसरी बात हां औरत के लिए कपड़ा लेना और सिर ढांकना ज़रूरी है, उसकी नमाज़ बाक़ई नंगे सिर नहीं होती. बाकी रहा मर्द तो उसके लिए सिर ढंकना और कपड़ा लेने की कोई शर्त वह नंगे सिर भी नमाज़ पढ़ सकता है.
मसजिद में आओ अच्‍छी ज़ीनत इख्तियार करके आओ किसी के पास अच्‍छी टोपी, अच्‍छा रूमाल है वह लेकर आ जाय, अच्‍छी बात है. लेकिन किसी ने सि‍र पे नहीं लिया कोई बात नहीं.
    वह ख़जूर के तिनकों का बना हुआ छिक्‍कू- छिक्‍कू जो ऊंट के मुंह पर चढ़ाया जाता है कि वह किसी को काट न ले. वह मसजिद के दरवाजे़ पर ही पड़ा होता है, अन्‍दर दाखिल होते, उठाया, सि‍र पर रखा अल्‍लाहुअक्‍बर. नमाज़ पढ़ के वापिस आये जब जूते पहन लिये तब याद आया कि छिक्‍कू तो वापिस रखा ही नहीं वह तो सि‍र पे ही है, उतार कर वहीं से अन्‍दर फेंक दिया. करते या नहीं करते?
    अब कुछ तरक्‍क़ी हो गई है तो वह खजूर क तिनकों के बजाय प्‍लास्टिक के छिक्‍कू आ गये , चायना ने तरक्‍की़ कर ली है कि हर चीज़ बना रहा है तो उसने यह भी बना दी. कुरआन कहता है कि मसजिद में आओ तो जी़नत इख्तियार करो. अब यह प्‍लास्टिक या खजूर के तिनकों के छिक्‍कू लगाने वालों से पूछो कि यह छिक्‍कू पहन कर तुम वलीमे में जाओगे, तुम दुकान पर जाओगे? नहीं जाओगे तो फिर ड्रामा करने के लिए मसजिद ही रह गई है?
जिन भाईयों को नंगे सि‍र का ऐतराज़ होता है उनसे पूछो सारे हाजी नंगा सि‍र हज नहीं करते. और अगर टोपी इतनी जरूरी है तो क्‍लीन सेव वालों के लिए मसनूई दाढ़ी लगाने हेतु ऐसी दाढि़यों का इन्तिज़ाम भी होना चा‍हिए, कि जब मसजिद में नमाज़ के लिए आयें तो दाढ़ी लगायें, आखिर नबी(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम)  की सुन्‍नत का सवाल है।

रविवार, 16 सितंबर 2012

नजदियत की हक़ीक़त


दर्ज तहरीर दर असल किताब तज़किरतुल मुनाजिरीन تذکرۃالمناظرین (मुरत्तिब: मौलाना मुहम्‍मद मुक्‍तदा असरी उमरी जिल्‍द: दौम 1947-2001 पब्लिशर्स- इदारा तहक़ीक़ाते इस्‍लामी जामिया असरिया दारूल हदीस, मउ, यू0पी0 इण्डिया) से माखूज़ है जिसमें सदाक़त मस्‍लक अहले हदीस बर ज़लालत हनफि़यत व बरेल्वियत’’ के उन्‍वान से पाकिस्‍तान के मशहूर अहले हदीस मुनाजि़र हाफि़ज़ अब्‍दुल क़ादिर रोपड़ी साहब और हनफि़यत के नाम निहाद ...... मुनाजि़र मुहम्‍मद उमर उछरवी के दरमियान हुए एक तवील मुनाजि़रे (स्‍थान: कराची, तारीख: दिसम्‍बर8, 1957 ई0) की रूदाद है, इसी तवील रूदाद में से नजदियत की हक़ीक़त से मुताल्लिक तहरीर को आपके सामने इस गरज़ से पेश किया जा रहा है कि आप हनफि़यत की अय्यारी-मक्‍कारी, झूठ-फ़रेब की एक झलक महज़ और मज़ीद देख सकें और लफ़्ज नज्‍दी के बारे में वाजेह तौर पर गुमराहकुन लोगों की आंखे खुल सकें- इनशा अल्‍लाह।

सोमवार, 2 जुलाई 2012

तक़लीद की हक़ीक़त


    तक़लीद के लग़वी  मअ़ना गले में किसी चीज़ को लटकाना है लेकिन जब इसका इस्‍तेमाल दीन के मफ़हूम में आये तो उस वक्‍त इसका मअ़ना किसी बात को बगैर दलील और गौर व फि़क्र के कुबूल कर लेना है. जैसा कि लिसानुल अरब सफ़ा 367 बगैरह मौतबर कुतुबे लुग़त में है.
   मौलाना सरफ़राज़ खां सफ़दर फ़रमाते हैं कि लुग़त की जदीद और मारूफ़ किताब (मिस्‍बाहुल-लुगा़त सफा 764) में है- उसने उसकी फ़लां बात में बगैर ग़ौर व फि़क्र के पैरवी की. (अल्‍कलामुल मुफ़ीद सफा 30)
कुरआन करीम में कई आयात से तक़लीद की नफ़ी होती है. चन्‍द आयात यह हैं- ‘‘जो कलाम तेरी तरफ बज़रिया वहीय भेजा गया है उसको मज़बूती से पकड़े रह इसमें शक नहीं कि तू सीधी राह पर है’’ (सूरह जुखरूफ़ आयत नं0 25). सूरह मायदा आयत नं0 49 में है ‘’पस तू उनमें अल्‍लाह के उतारे हुए हुक्‍मों से फ़ैसला कीजिये और तेरे पास सच्‍ची तालीम आई है उसे छोड़ कर उनकी ख्‍वाहिशात के पीछे न चलिये.’’  इन आयतों में इस बात का हुक्‍म दिया गया है कि पैरवी सिर्फ और सिर्फ वहीय की कीजिये और वहीय की मौजूदगी में ख्‍वा‍हिशात की पैरवी न करना.
   सूरह नहल में अल्‍लाह तआला का इरशाद है- ‘’और अपनी ज़बानों के झूठ बयान से न कहा करो कि यह हलाल है और यह हराम कि तुम अल्‍लाह पर झूठ के बोहतान बांधने लगो जो लोग अल्‍लाह पर झूटे इफि़तरा करते हैं हरगिज़ न बामुराद होंगे उनके लिए थोड़ा सा गुज़ारा है और उनके लिए दुख का अ़ज़ाब है.’’
आयत अपने मक़सद में बिल्‍कुल वाजेह है कि किसी चीज़ को हलाल व हराम क़रार देना अल्‍लाह तआला के लिए ख़ास है और यह कि अपनी तरफ़ से किसी चीज़ को हलाल व हराम कहना मालिके हकीकी़ पर बोहतान बांधना है इस बात का रब रहमान ने सूरह यूनुस आयत नं0 59 में भी बयान किया है. अल्‍ग़रज किसी चीज़ की हिल्‍लत व हुरमत का ताल्‍लुक़ अल्‍लाह की ज़ात से ख़ास है अब जो शख्‍स इमाम अबू हनीफ़ा की तक़लीद को हलाल क़रार देकर उसे फ़र्ज क़रार देकर उसे फ़र्ज व वाजिब कहता है. जा़हिर है कि वह अल्‍लाह की तरफ़ झूठ मन्‍सूब करता है क्‍योंकि अल्‍लाह ने किसी जगह भी इमाम अबू हनीफ़ा की तक़लीद करने का हुक्‍म व इरशाद नहीं फ़रमाया. इस आयत से एक और बात भी मालूम हुई वह यह कि जब कोई शख्‍स किसी चीज़ को हलाल व हराम कहता है तो उसकी हिल्‍लत व हुरमत की कोई दलील कुरआन व सुन्‍नत से देना उस पर लाजि़म है वर्ना वह इफि़तरा अल्‍लाह होगा और उससे भी बढ़कर वह शख्‍स नादान व जाहिल और अल्‍लाह की सिफ़त में शरीक ठहराने वाला होगा जो इंसान इस हिल्‍लत व हुरमत के फ़तवा  को बिला चूं व चिरां क़बूल कर लेता है और उसे तमाम वाजिबात से ज्‍यादा अहमियत देता है बल्कि उसकी तरफ़ दावत देता है और उससे इन्हिराफ़ इस्‍लाम से बग़ावत के मुतरादिफ़ क़रार देता है और उस बे-दलील फ़तवा के मुन्‍करीन को गुमराह और मुब्‍तदईन में शुमार करता है.

तक़लीद की रस्‍म अहले किताब में थी?

अस्‍ल में तक़लीद अहले किताब और मुशरिकी़ने अरब की रस्‍मे बद है, इसका दीने इस्‍लाम से दूर का भी वास्‍ता नहीं है. इरशादे रब्‍बानी है- ‘’उन्‍होंने अपने पादरियों और दरवेशों और मसीह इब्‍ने मरियम को अल्‍लाह के सिवा माबूद बना रखा है हालांकि हुक्‍म सिर्फ यही था कि अकेले माबूद की जिसके सिवा कोई माबूद नहीं इबादत करें वह उनके शिर्क से पाक है.’’ (सूरह तौबा आयत नं0 31)
इस आयत की तफ़सीर नबी करीम (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम)ने खुद फ़रमाई है, जिसे हज़रत अ़दी बिन हातिम (रजिअल्‍लाहु अन्‍ह) बयान करते हैं कि मैंने यह आयत रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) को तिलावत करते हुए सुना तो मैंने अर्ज किया कि या रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) हमने उनकी कभी भी इबादत नहीं की और न हम मौलवी और दरवेशों को रब मानते थे तो रसूलुल्‍लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि- वह अपने उलमा की इबादत नहीं करते थे जब उनके उलमा किसी चीज़ को हलाल कह देते तो वह उसे हलाल कर लेते और जब वह किसी चीज़ को हराम क़रार देते तो वह भी उसे हराम तस्‍लीम कर लेते. (सुनन तिर्मिज़ी मय तोहफ़तुल अहवज़ी सफ़ा 117)
बाप-दादा की तक़लीद, हर दौर में गुमराही की बुनियाद रही है. कौ़मे आद ने भी यही ‘’दलील’’ पेश की और शिर्क को छोड़कर तौहीद का रास्‍ता अख्तियार करने पर आमादा नहीं हुए. बद कि़स्‍मती से मुसलमानों में भी अपने बड़ों की तक़लीद की यह बीमारी आम है. इनका एक तबका़ तो वह है जो दीन का कुछ शऊर रखता है और दीनी उलूम में भी उसे एक हद तक दस्‍तरस हासिल है, लेकिन उसने अपने आपको किसी न किसी खा़स फिकह और मुतय्यन इमाम की राय का पाबन्‍द कर रखा है और इस तक़लीद ने इन मक़ल्लिदीन को कई सुन्‍नतों पर अमल करने से रोक रखा है क्‍योंकि वह सुन्‍नतें उनकी फि़कह में दर्ज नहीं हैं या उनके इमाम ने इन्‍हें कोई अहमियत नहीं दी. एक दूसरा तबक़ा वह है जो दीनी शऊर और दीनी उलूम से ही अंजान है. उसका मज़हब ही रस्‍म व रिवाज परस्‍ती है. चुनांचे यह तबक़ा शादी हो या मर्ग, हर मौके़ पर जाहिलाना रस्‍मों की पाबन्‍दी करता है, और बिदआत पर अमल करने को फ़राइज़ व सुनन से भी ज्‍यादा अहमियत देता है. उनके हां फ़राइज. का तरक आम है, लेकिन बिदआत व रसूमात की पाबन्‍दी का ग़ायत दर्जा अहतमाम. ‘’दलील’’ उनकी भी यही है कि यह काम हमारे ‘’बड़े’’ करते आये हैं- ‘’और उनसे कहा जाता है कि अल्‍लाह तआ़ला की उतारी हुई किताब की ताबेदारी करो तो जवाब देते हैं कि हम तो उस तरीक़े की पैरवी करेंगे जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया, अगर्चे उनके बाप-दादा बे अक़ल और गुमराह ही क्‍यों न हों.’’(सूरह बकरा आयत नं0170)
‘’तक़लीद की रविश से तो बहतर है खुदकशी
रस्‍ता भी ढूंढ, खिज्र का सौदा भी छोड़’’

बुधवार, 27 जून 2012

अहले हदीस के अमल हनफी फिक्‍ह से ताईद


आम तौर से हमारे हनफी बिरादरान हम अहले हदीसों के अमल को देख कर हमें नया तरीका निकालने वाले गुमराह, बद अकी़दा बगैरह-बगैरह के खि़ताब से नवाज़ते हैं׀ हमने मुनासिब समझा कि अहले हदीसों के अमल की दलील हनफी मस्लक की मौतबर किताबों से पेश करें ताकि हक वाहेह हो जाय और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाय׀ उम्मीद है हनफी़ बिरादरान इन दलीलों को पढ़कर ज़रूर गौर फ़रमायेंगे׀
इमाम अबू हनीफा़ (रहमतुल्लाह अलैहि) ने फ़रमाया-
1.                  लोग हमेशा बेहतरी में रहेंगे जब  तक कि उनमें कोई हदीस तलब करने वाला रहेगा׀ (मुक़दमा आलम गीरी जिल्1)

2.                  छोड़ दो मेरे कौल हदीस के सामने (शरह विका़या)

3.                  जब सही हदीस मिल जाय वहीं मेरा मजहब है(मुकदमा आलमगीरी जिल्1)

4.                  दीन में राय से बचो, सुन्नत के ताबे रहो और जो इससे बाहर है गुमराही है׀(मुकदमा आलम गीरी जिल्1)
5.                  किताब सुन्नत में सब कुछ मौजूद है (मुकदमा आलम गीरी जिल्1)

6.                  हदीस का रद्द करने वाला गुमराह है׀ (मुकदमा हिदाया जिल्1)

7.                  हदीस इमाम के कौ़ल पर मुकद्दम है (हिदाया जिल्1)

8.                  जो हदीस जईफ़ है उस पर अमल किया जायेगा(दुर्रे मुख्तार जिल्1

9.                   आफ़त तक़लीद से पडी़ है׀ (दुर्रे मुख्तार जिल्1)

10.                फ़सअलू अहलज जि़करे इन कुन्तुम ला तअलमून से मुराद कुरआन हदीस का हुक् दरियाफ्त करना है׀ लोगों की बातें मान लेने का हुक् नहीं है׀ (मुकदमा आलमगीर जिल् 1)

11.                 यहूदी नसारा अपने मौलवी और दरवेशों का कहना मानते थे इसलिए अल्लाह ने उन्हें मुशरिक फ़रमाया मौमिन को हुक् किया कि लोगों के कौ़ल मत पूछो बल्कि ये पूछो कि अल्लाह का हुक् क्या है׀( मुकदमा आलमगीर जिल् 1)

12.                नीयत ज़बान से करना बिदअत है (दुर्रे मुख्तार जिल्1)

13.             गर्दन का मसह बिदअत है और इसकी हदीस मौजू है (दुर्रे मुख्तार जिल् 1)

14.              नाफ़ के नीचे हाथ बांधन की हदीस बइत्तेफ़ाक़ अइम्मा मुहददसीन जईफ़ है׀ (हिदाया जिल् 1)

15.              सीने पर हाथ बांधने की हदीस बइत्तेफा़क अइम्मा मुहददसीन सही है (शरह विकाया)

16.              इमाम के पीछे सूरह फा़तिहा पढ़ने की हदीस जईफ़ है׀ (हिदाया जिल्1)

17.              हदीस आमीन बिजहर (बा आवाज़) की साबित है׀ (हिदाया जिल् 1, शरह विकाया)

18.              रफेयदेन करने की हदीस जईफ़ है׀ (शरह विकाया)

19.              हक़ यह है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) से रफेयदेन सही साबित है׀ (हिदाया जिल् 1)

20.              तरावीह 20 रकात की हदीस जईफ़ है׀(दुर्रे मुख्तार जिल्1, हिदाया जिल्1)

21.             तरावीह 8 रकात की हदीस सही है׀ (शरह विकाया)