मंगलवार, 29 नवंबर 2011

दस मुहर्रम और मुसलमान


मुहर्रम का महीना इस्लाम धर्म में निहायत महत्व व फ़जीलत रखता है। तमाम मुसलमानों के निकट इसका मुका़म व अहतराम रखना अनिवार्य है। इस्लामी साल की शुरूआत भी इसी महीने से होती है। इसी तरह इस्लामी साल के बारह महीनों में रजब, जुलका़दह, जुलहिज्जह के महीने भी ताजीम (सम्मान) के लायक हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है कि- अल्लाह के यहांँ ज़मीन व आसमान के पैदा किये जाने के दिन ही से महीनों की गिनती बारह है। इसलिए तुम अपने आप पर अत्याचार न करो। (सूरहःतौबह-36)
आशूरा का रोजा़- आशूरा मुहर्रम की दसवीं तारीख को कहा जाता है। इस दिन की बड़ी फ़जीलत है व अहमियत है। अल्लाह तआला ने इस दिन हजरत मूसा अलैहिस्सलाम को और उनकी कौ़म बनी इस्राईल को फ़िरऔन के अत्याचार से छुटकारा दिलाया था। इस दिन रोजा़ रखना सुन्नत है और इसकी बड़ी अहमियत और फ़जीलत आई है। इससे पिछले एक साल के सगी़रा गुनाह माफ़ कर दिये जाते हैं। हजरत क़तादा रजिअल्लाहों अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से आशूरा के रोजे़ के बारे में पूछा गया तो आपने फ़रमाया यह पिछले एक साल के पापों (गुनाहों) का कफ्फ़ारा बन जाता है। (मुसलिम) मुूहर्रम की दसवीं तारीख को रोजा़ रखने के साथ उसके आगे या पीछे एक दिन को रोजे़ को मिला लेना होगा (अहमद)
मुहर्रम की बिदअतें- मुहर्रम में मसनून काम सिर्फ़ रोजा़ है, मगर आजकल के मुसलमान इसमें रोजा़ रखने के बजाय खुराफा़त में उलझ गये हैं। हजरत हुसैन (रजिअल्लाहों अन्हु) की शहदत के कारण मुहर्रम के दिन को ग़म व मातम का दिन बना लिया गया है। जबकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के ज़माने में रोजा़ के सिवाय कुछ नहीं था।
ताज़िया बनाना- ताज़िया बनाना महापाप है। काग़जों व लकड़ियों से ताज़िया बनाते हैं। हजारों स्त्री-पुरूष सजदा करते हैं, उससे मुरादें मांगते हैं। यह लोग ख्याल करते हैं कि इसमें हजरत हुसैन (रजिअल्लाहों अन्हु) की आत्मा आ ती है। अपने बच्चों को ताज़िया के नीचे से गुज़रवाते हैं, ताकि वह तमाम मुसीबतों व नज़रे   बद (कुदृष्टि) से महफ़ूज रहें। यह सब शिर्क का काम है और ऐसा करना हराम है। अल्लाह तआला  का फ़रमान है- क्या तुम उस चीज़ को पूजते हो, जिसको खुद बनाते हो। जबकि अल्लाह तआला ने तुमको और तुम्हारे काम को पैदा किया है। (सूरहःसाफ़फ़ात)
नौहा व मातम - इस्लाम ने मुसीबतों पर सब्र करने का आदेश दिये है और मातम करने वाले पर लानत भेजी गई है। हदीस में है कि अल्लाह तआला की लानत हो उस पर जिसने मुसीबत पर बाल मुंड लिये, जो़र से चिल्लाया और कपड़े फाड़े। (मुसलिम) इसी तरह ढोल, ताशा, नगाड़ा बजाना हराम है। हदीस में आया है कि रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि अल्लाह ने मुझे सारी दुनिया के लिये रहमत व हिदायत बनाकर भेजा है और मुझे हुक्म दिया है कि मैं तमाम बाजों, ढोलों, ताशों, नगाड़ों आदि को मिटादूं।

रविवार, 20 नवंबर 2011

मुसलिम होने का मतलब

 अल्लाह के नाम से हम उसी की तारीफ़ करते हैं, उसी से मदद तलब करते हैं और माफ़ी के तलबगार हैं। अल्लाह जिसे सही मार्गदर्शन (सीधा रास्ता) करना चाहे उसे कोई भटका नहीं सकता और जिसे अल्लाह रास्ते से भटकाना चाहे उसे कोई सही राह पर नहीं ला सकता। हम गवाही देते हैं कि कोई माबूद (पूजा के लायक) नहीं है सिवाए अल्लाह के और गवाही देते हैं कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम अल्लाह के बन्दे और अन्तिम रसूल हैं।
 सबसे पहले मुसलिम शब्द का मतलब मालूम करते हैं । मुसलिम शब्द जिसका हम आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं, का असल मतलब क्या है? मुसलिम वह है जो अपनी इच्छा, मर्जी अल्लाह की मर्जी, ख्वाहिश के आगे त्याग दे। दूसरे शब्दों में अपने आपको अल्लाह के लिए समर्पित कर देना । अब सवाल है कि कौन मुसलिम है और कौन मोमिन? क्या कोई आदमी अपने जन्म के आधार (गुण) पर मुसलिम हो सकता है? क्या आदमी मुसलिम सिर्फ इसी वजह से हो सकता है कि वह किसी मुसलिम का बेटा या बेटे का बेटा (पौ़त्र) है? क्या कोई महज मुसलिम घर में पैदा होने मात्र से मुसलिम हो जाता है? जैसे कि हिन्दू का बेटा हिन्दू होता है या अंग्रेज का बेटा अं्रग्रेज होता है । क्या मुसलिम जाति है या राष्ट्र्ीयता है। क्या मुसलिम होना मुसलिम उम्मत से संबंध रखना है । जैसे आर्यन लोग आर्यन जाति से संबंधित थे। जैसे जापानी लोग जापनी होते हैं, क्योंकि वह जापान में जन्म लेते हैं । उसी तरह से क्या मुसलमान मुसलिम कहलाता है क्योंकि उसने मुसलिम मुल्क में या मुसलिम घर में जन्म लिया है ? आपका इन सवालों से संबंधित उत्तर ‘न’ में होगा। एक मुसलिम सही मायने में मुसलिम नहीं हो सकता, महज इस वजह से कि वह मुसलिम पैदा हुआ है।  वह मुसलिम इसलिए है क्योंकि वह इस्लाम को मानता है। अगर वह इस्लाम को त्यागता है वब वह मुसलिम नहीं होता। कोई आदमी चाहे ब्राह्मण हो या राजपूत, अंग्रेज हो या जापानी, काला हो या गोरा वह शख्स इस्लाम ग्रहण करने पर मुसलिम समाज (कौ़म) का सदस्य बन जाता है। इसके विपरीत यदि कोई शख्स जो मुसलिम घर में पैदा हुआ है उसको मुसलिम उम्मत से निकाल दिया जाता है या उसने इस्लाम को अपनाने से छोड़ दिया चाहे वह नबी का उत्तराधिकारी ही क्यों न हो। वह मुसलिम नहीं हो सकता।
 यह इस बात को स्थापित करता है कि अल्लाह की सबसे बड़ी नेमत (उपहार) जिसका हम आनन्द उठाते हैं कि मुसलिम होना, यह कोई ऐसी बात नहीं कि वह अपने आप पैतृक रूप में हमें हमारे मां, बाप से मिलती है, जो जिन्दगी भर आधिकारिक रूप से हमारे नज़रिये और अख़लाक़ के बरखिलाफ़ हमारे पास रहती है। यह एक तोहफ़ा है जिसको पाने के लिए हमें लगातार लड़ना है।
 हम सब इस बात पर राजी है कि इस्लाम ग्रहण करने पर हम मुसलिम बन जाते हैं । लेकिन इस्लाम ग्रहण करने का मतलब क्या है? क्या इसके मायने यह होते हैं कि जो केाई भी यह ज़बानी इक़रार करता है कि ‘‘मैं मुसलिम हूं’’ या मैंने इस्लाम कुबूल कर लिया है? वह यह कहने से सच्चा मुसलमान बन जाता है ? या इसका मतलब यह होता है कि जैसे एक हिन्दू धर्म को मानने वाला कुछ संस्कृत के लिखे शब्दों को पढ़ ले बिना उनके मतलब को समझे। इसी तरह से कोई शख्स कुछ अरबी शब्दों को बिना उनका मतलब जाने पढ़े और मुसलमान हो जाए? आप इस सवाल का क्या जवाब देंगे। हम इसका जवाब देंगे कि इसलाम कुबूल करने का मतलब होता है कि मुसलमान पूरे होश और समझ-बूझ के साथ स्वीकार करे कि जो कुछ भी कुरआन में उतारा गया है उसके हिसाब से चलें। जो लोग इसके मुताबिक अमल नहीं करते हकी़क़त में वह मुसलिम नहीं हैं।
 इस्लाम में सबसे पहले ज्ञान (इस्लामी मालूमात) है और फिर उस ज्ञान को (व्यवहार में लाना )अमली जामा पहनाना है। कोई भी शख्स सच्चा मुसलिम नहीं हो सकता बिना इस्लाम का मतलब जाने,क्योंकि  वह मुसलमान होता है तो न कि जन्म से बल्कि ज्ञान (इस्लामी मालूमात) हासिल कर उसे अपनी जिन्दगी में व्यवहारिक रूप से उतारे। यह बात स्पष्ट है कि कोई मालूमात न होने कि वजह से सच्चा मुसलिम बनना और रहना नामुमकिन है। मुसलमान घरों में जन्म लेना, मुसलमानी नाम रखना, मुसलमानी पहनावे (कपड़े) पहनना और अपने आपको मुसलिम पुकारना ही मुसलमान होने के लिए काफ़ी नहीं है ।
 काफ़िर (नास्तिक) और मुसलिम के बीच अन्तर सिर्फ़ नाम का ही नहीं है, जैसे किसी का नाम स्मिथ या रामलाल और अब्दुल्लाह  है। कोई आदमी सिर्फ़ नाम की वजह से काफ़िर और मुसलिम नहीं होता । इसमें सबसे बड़ा अन्तर इस्लामी मालूमात का और उसपर अमल का है । एक काफ़िर यह नहीं समझता कि उसका अल्लाह से क्या संबंध है और अल्लाह का उससे क्या ताल्लुक़ है । जिस तरह से वह अल्लाह की मर्जी को नहीं जानता उसी तरह से वह सीधा रास्ता नहीं जान सकता, जिसपर चलकर वह अपनी जिन्दगी गुजा़र सके। यदि एक मुसलिम अल्लाह की मर्जी को नज़रअन्दाज़ कर दे, तब किस आधार पर काफ़िर के बजाय मुसलमान कहा जायेगा?
 यहांँ पर जजा़ (इनाम) और सजा़ में अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा फ़र्क़ है, जो रस्मी तौर पर (दावा करने वाले) कथित मुसलिम और एक सच्चे मुसलमान  के बीच एक कथित तौर पर मुसलिम होने का दावा करने वाला मुसलमान कहलाया जा सकता है, जब वह मुसलिम नाम रखे और मुसलिम घर में पैदा हुआ हो। लेकिन अल्लाह के नज़दीक  सच्चा मुसलमान वही हागा, जो इस्लामी मालूमात रखता हो और कुरआन व सुन्नत के मुताबिक अमल करे। ऐसे वह लेग हैं, जिनको अल्लाह ने कुरआन के अन्दर मोमिन का खिताब दिया है और इन मोमिनों के लिए अल्लाह ने आखिरत में अच्छे इनाम का वादा किया है।
अल्लाह हमंे उन लोगों में से बनाये जो निरन्तर अपने गुनाहों की बख्शिश मांगते रहते हैं और वह अपनी असीमित रहमत और अपनी हिफ़ाजत में रखे । आमीन.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

सन् 1996 में इस्‍लाम कुबूल करने वाली एक नव मुसलिम औरत का मुसलमानों के नाम खुला ख़त

बिसमिल्‍लाहिर्रहमानिर्रहीम
मेरे दीनी भाई-बहनो ! अस्‍सलामो अ़लैकुम व रहमतुल्‍लाह व बरकातहू,
     मुझे इस्‍लाम से बहुत प्‍यार था और मैं जब मुसलमानों को देखती तो उन्‍हें बहुत सही और उनका मज़हब बहुत सच्‍चा समझती थी׀ लिहाजा़, अल्‍लाह के फ़ज़ल व करम से मैंने आज से तक़रीबन 15 साल पहले इस्‍लाम को कुबूल कर लिया׀ जिसकी वजह से मेरे मां-बाप, भाई-बहन सारे रिश्‍तेदार अब सिर्फ नाम के ही रिश्‍तेदार रह गये है यानि सब मुझसे छूट गये׀ सोचा था कि मुसलमान बनने पर सभी मुसलमान मुझे बहुत चाहेंगे और मेरे इस क़दम का स्‍वागत करेंगे पर जब मैंने इस्‍लाम कुबूल किया तो मुझे वहां उल्‍टी ही गंगा बहती मिली׀ दीन की सही बातें समझने के बाद जब मैंने उन्‍हें समझना चाहा तो मुझे ही उन्‍होंने गुमराह-दोज़खी़, वहाबी और न जाने किन-किन अल्‍का़ब (सम्‍बोधन) से नवाज़ना शुरू किया, क्‍योंकि जो बुत परस्‍ती मैं छोड़कर आयी वही सब कुछ मैंने थोड़े से बदले हुए नामों के साथ मुसलमानों को क़ब्रों के साथ करते हुए देखा, तो मेरे दिल में आया कि ये सब तो मैं अपने पुराने धर्म में भी कर रही थी तब मुझे इस्‍लाम कुबूल करने की ही क्‍या ज़रूरत थी?  लेकिन जब इस्‍लाम की मूल शिक्षाओं को गौ़र से समझा तब मालूम हुआ कि आज के आ़म मुसलमान तो अपने ही धर्म की मूल शिक्षाओं से बहुत ही दूर हैं और इनके धार्मिक विद्वान (उलमा व मौलवी) भी इन्‍हें उन मूल शिक्षाओं से बहुत ही दूर रखे हुए हैं और धर्म की आड़ में अपनी रोजी़-रोटी चला रहे हैं׀ कुरआन में भी है- ‘’बहुत से आ़लिम व दरवेश लोगों का माल नायज़ तरीके़ से खाते है और अल्‍लाह के रास्‍ते से रोकते हैं׀’’ (सूरह तौबा-34)

     इस्‍लाम की मूल शिक्षाओं का स्रोत सिर्फ और सिर्फ कुरआन व हदीस है लेकिन आजके नाम-निहाद (तथाकथित) और पेट के पुजारी मौलवियों ने ये भ्रामक प्रचार कर रक्‍खा है कि आ़म मुसलमान कुरआन व हदीस को नहीं समझ सकता, क्‍योंकि ये बहुत कठिन है׀     जबकि अल्‍लाह तआ़ला का फ़रमान है कि- ‘’हमने इसे आसान बनाया है समझने के लिये, तो है कोई समझने वाला?’’ (सूरह क़मर-17)
जब मैं सिर्फ कक्षा 4 तक की पढ़ी हुई और मैंने पूरे कुरआन के हिन्‍दी अनुवाद को पढ़ा तो मेरी समझ में वो आ गया , फिर ये मौलवी ना जाने कैसे ये कहता है कि कुरआन बहुत सख्‍त है और तुम नहीं समझ सकते (नउज़बिल्‍लाह)׀   
     जब मैंने इस्‍लाम की मूल शिक्षाओं को समझा तब मुझे पता चला कि मैंने कितनी बड़ी कामयाबी की राह को पा लिया है और अल्‍लाह तआ़ला के फ़ज़ल व करम से कितनी बड़ी गुमराही से बच गयी׀
     मैं आप सभी मुसलमान भाईयों की खि़दमत में किसी की लिखी ये पंक्तियां पेश कर रही हूं, जिन्‍हें पढ़ कर आप को शायद थोड़ी ना-गवारी तो ज़रूर लगेगी लेकिन जब आप ठण्‍डे दिमाग़ से सोचेंगे और कुरआन व हदीस की मूल शिक्षाओं से मिलायेंगे तो आपको इन्‍शाअल्‍लाह इन पंक्तियों के एक-एक शब्‍द बिल्‍कुल सच व सही लगेंगे׀ हो सकता है कि आप मेरे विचार और ख्‍यालात से मुत्‍तफि़क़ (सहमत) न हों लेकिन मैं अपने अनुभव और अपने विचारों को फिर भी पेश कर रही हूं कि शायद आप इस पर गौ़र करें और अपनी इस्‍लाह करें׀ 
     ‘’शायद कि उतर जाये सीनों में मेरी बात’’
गै़र मुसलिम का, मुसलिम से खि़ताब
एक ही प्रभु की पूजा हम अगर करते नहीं,
एक ही रब के सामने, सर आप भी रखते नहीं׀  ׀    
           अपना सजदागाह देवी का अगर स्‍थान है׀
           आपके सजदों का मरकज भी तो क़ब्रस्‍तान है׀   ׀    
अपने देवी-देवताओं की गिनती , हम अगर रखते नहीं׀
आप भी तो मुश्किल कुशाओं को, गिन सकते नहीं׀    ׀    
           जितने कंकर उतने शंकर ये अगर मशहूर है׀   
           जितने मुर्दे उतने सजदे, आपका दस्‍तूर है׀     ׀    
अपने देवी-देवताओं को है अगर कुछ अख्तयार׀
आपके वलियों की ताक़त का नहीं है कुछ शुमार׀ ׀    
           वक्‍त मुश्किल का है नारा अपना तो, जब बजरंग वली׀
           आपको भी देखा लगाते नारा, अल मदद या अली׀     ׀    
लेता है अवतार प्रभु अपना, तो हर देश में׀    
आपने समझा अल्‍लाह को मुस्‍तफ़ा के भेष में׀   ׀    
           जिस तरह से हम बाजाते, मंदिरों में घंटियां׀   
           तुरबतों पर आपको , देखा बजाते तालियां׀ ׀    
हम भजन करते हैं गाकर, देवता की खूबियां׀  
आप भी क़ब्रों पर गाते , झूम कर क़व्‍वालियां׀   ׀    
           हम चढाते हैं बुतों पर, दूध और पानी की धार׀ 
           आपको देखा चढाते, सुर्ख़ चादर शानदार׀ ׀    
बुत की पूजा हम करें, हमकों मिले नार-ए-सकर׀
आप कब्रों पर झुकें, क्‍यूंकर मिले जन्‍नत में घर?
           आप भी मुशरिक- हम भी मुशरिक, मामला जब साफ़ है׀    
           जन्‍नती तुम दोज़ख़ी हम, ये भी कोई इन्‍साफ़ हे?
हम भी जन्‍नत में रहेंगे, तुम अगर हो जन्‍नती׀
वर्ना दोज़ख़ में रहेंगे, आप हमारे साथ ही׀ ׀    
           हम भी छोड़ें-तुम भी छोड़ो, हैं ग़लत जो रास्‍ते׀ 
           एक ही माबूद को पूजें, आओ- अल्‍लाह के वास्‍ते׀ ׀    

     अन्‍त में आप सभी मुसलिम भाईयों से आह्वान करती हूं (हालांकि ये काम आपको खुद ही करना चाहिए था) कि आप लोग कुरआन व हदीस की तालीमात (शिक्षाओं)को खुद पढ़ें, खुद समझें तो इन्‍शाअल्‍लाह इस्‍लाम की सही तस्‍वीर आप खुद ही जान जायेंगे׀    आपसे मैं सिर्फ इतना ही कहूंगी कि आप सभी दीनी भाई-बहनें कम से कम एक बार पूरे कुरआन मजीद को तर्जुमे के साथ पढ़ डालें, फिर देखें कि क्‍या आपको कुरआन समझ में नहीं आता है? और ये देखिये कि आज जो कुछ आप तीज-त्‍यौहार के नाम पर सवाब पाने की नियत से कर रहे हैं क्‍या वो सब ठीक है? जिसे आज आपने ऐन इस्‍लाम समझकर गै़रूल्‍लाह को अल्‍लाह का मुका़म देकर उस पर सवाब की नियत से जो कुछ भी दीन और मज़हब के नाम पर कर रहे हैं क्‍या वो सब जायज़ है? या ठीक है? करआन को गि़लाफ़ में रख कर सिर्फ ताक़ों की जी़नत मत बनाइये, बल्कि उसे पढि़ये, गौ़र करिये और अपनी जिन्‍दगी में उतारने की कोशिश करिये और वक्‍त़ की नमाजें मुक़र्ररा वक्‍त पर अदा करें, दीनी मां-बहने भी अपनी नमाजों की पाबन्‍दी करें और जुमा के दिन ज़रूर मसजिद में जाकर ख़ुत्‍बा सुने और जमाअ़त में शामिल हुआ करें׀    मसजिद में औरतें भी मुकम्‍मल पर्दे के साथ (उनका इन्‍तजा़म भी अलग रहना चाहिये) जाकर एक इमाम के पीछे नमाज़ अदा कर सकती हैं׀
     पर अफ़सोस है कि इस भी आज नाम-निहाद जेब भरू पीर और पेट भरू मौलवियों ने नाजायज़ क़रार दे रखा है जबकि औरतों को बनावटी बैअ़त और मजा़रों की हाजि़री के लिये बेपर्दा करने में इन्‍हें कोई ऐब नज़र नहीं आता׀   ये सब शैतान कि़स्‍म के लोग हैं, ऐसे लोगों के बहकावे में मत आयें׀ अल्‍लाह के नबी मुहम्‍मद (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के वक्‍त में भी औरतें मसजिद में जाकर, अलग से खड़ी होकर नमाजें अदा किया करती थीं इसलिये ये जायज़ है और आज भी मसजिदों में इसका इन्‍तजा़म होना चाहिये׀ एक बात और जान लीजिये कि अल्‍लह के नबी (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) ने ईदैन (ईद-बक़रीद) की नमाजें औरतों को ईदगाह में जाकर अदा करने का ह़ुक्‍म दिया है इसलिये औरतों को ईदैन की नमाज़ मे शामिल होना वाजिब है, अगर हैज़ (मासिक धर्म) की हालत में हों तब भी जाना वाजिब है, हां उस हाल में नमाज़ नहीं पढ़ेंगी बल्कि अलग बैठेंगी और खुत्‍बा व दुआ बगैरह में शामिल रहेंगी, अगर एक औरत के पास पर्दे के लिये कपड़ा न हो तो दूसरी औरत अपने चादर में उसे भी ले ले, अगर आपको इन बातों पर यकी़न न हो तो इन हदीसों का खुद मुतालआ (अध्‍ययन) कर लें׀   
1-बुखरी, हदीस नं0 981, 2- मुसलिम, हदीस नं0 890, 3- अबूदाउद, ह0नं0 1136, 4-तिर्मिजी़ ह0न0 537, 5-इब्‍ने माजा़ ह0नं0 1308, 6- नसई भाग3, 7-अहमद, भाग5, पेज84, 8-बैहकी़, भाग3 पेज305 ׀   

     आखि़र में अल्‍लाह तआ़ला से द़ुआ़ है कि वो मेरी इस छोटी सी कोशिश को कु़बूल फ़रमाए और हम सभी मुसलमानों को इस्‍लाम की सही तालीमात (शिक्षाओं) पर चलने वाला अपने नबी-ए-करीम (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) के बताये हुए तरीकों पर अ़मल करने वाला सच्‍चा-पक्‍का मोमिन बनाये और जन्‍नतुल फि़रदौस में हमें जगह अ़ता करे ׀ (आमीन) आप सभी अपनी इस नव मुसलिम बहन को अपनी नेक दुआ़ओं में ज़रूर याद रखियेगा, अगर कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ करियेगा ׀
आपकी एक नव मुसलिम बहन जा़हिदा मुहम्‍मदी
(इस्‍लामिक रिसर्च सेन्‍टर, मिर्जापुर)

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम के स्‍‍थान पर 786 लिखना

बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम की जगह 786 लिखने की बिदअ़त एक अर्से से मुसलिम हलकों में मक़बूलियत व शरई हैसियत हासिल कर चुकी है. रिसालों, किताबों एवं खुतूत तक ही महदूद (सीमित) नहीं है, बल्कि लोग गाडि़यों और दुकानों में लिखा करते हैं और अपने हर काम का आगा़ज (शुभारम्‍भ) इसी से करते हैं.
     बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम को 786 लिखना यह दर असल नाम-निहाद उलमाए किराम का तर्जे-अम़ल है, यह हज़रात 786 को बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम का नेमुल बदल (प्रतिस्‍थानीय) क़रार देते हुए बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम की बेहुरमती से बचने के लिए अपने खुतूत व रसाइल (पत्र-पत्रिकाओं) में 786 का इस्‍तेमाल करते हैं और इसे रिवाज देते हैं और बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम लिखने में आ़र (शर्म) महसूस करते हुए परहेज़ करते है और कहते हैं कि यह तालीमाते नबवी के खिलाफ़ है.
     हालांकि यह हकी़क़त में सिराते मुस्‍तकी़म (सत्‍मार्ग) से इन्हिराफ (इंकार) और दीन-ए-इस्‍लाम व कुरआने मुक़ददस के साथ खुला हुआ मजा़क है. क्‍योंकि कुरआ़न मजीद के अन्‍दर अल्‍लाह तआ़ला ने हज़रत सुलेमान (अलैहिस्‍सलाम) के एक ख़त का तज़किरा (उल्‍लेख) किया है, जिसकी इब्तिदा बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम से की गई है.
     सन 6 हिजरी में सुलह हुदैबिया के मौके़ पर पैग़म्‍बरे इस्‍लाम और मुसलमानों का मुशरिकों से जिन 6 शर्तों पर मुआहिदा (समझौता) हुआ था, इस अहद नामे की तहरीर का आगा़ज भी हज़रत अ़ली (रजि़अल्‍लाहु अन्‍हु) ने बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम से किया था. सन 7 हिजरी के आखि़र में नबी करीम (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) ने अमीरों व सुल्‍तानों के नाम पर जितने भी खुतूत (पत्र) रवाना किये थे, सबके शुरू में बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम लिखा गया था.
     हालांकि प्‍यारे नबी (सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम) यकी़नी तौर पर जानते थे कि यह खुतूत कुफ्फार और मुशरिकी़न के नापाक हाथों में जायेंगे और मुखा़तिब (संबोधित) भी वही लोग थे. मगर क्‍या शान-ए-इलाही कि इब्तिदा अल्‍लाह पाक के मुकददस नाम से और इख्तिमाम भी इस पर.
     हम 786 के पैरोकारों से पूछना चाहते हैं कि क्‍या हमारे असलाफ़ को ताजीम-ए-इलाही से कोई सरोकार नहीं था. क्‍या कुरआने मुकददस की ताजी़म हमसे कम किया करते थे या उनको शरीयत की समझ हमसे कम थी, जो हम इस कमी को पूरा कर रहे हैं. यह मुसल्‍लम (खुली) हकी़क़त है कि हमारे असलाफ़ कुरआने मजीद की ताजी़म व तकरीम हमसे ज्‍़यादा किया करते थे और उनका फ़हम व इदराक भी हमसे कहीं ज्‍़यादा था. दर असल 786 हिन्‍दुओं के भगवान हरीक़ष्‍णा के हुरूफ़ (अक्षरों) का मजमूई योग है. हुरूफ़ को आदाद (अंकों)  में तब्‍दील (परिवर्तितत्र) करना, यह एक यहूदी मंसूबा साजी़ और इस्‍लाम के खि़लाफ़ प्रोपैगेण्‍डा है और दुश्‍मनाने इस्‍लाम की एक साजि़श के तहत यह काम अमल में आया है, जिसका मक़सद दीने इस्‍लाम की असली शक्‍ल व सूरत को मसख़ (बिगाड़ना) करना है.
     ज़रा सोचिये ! जब हम बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम के बजाय अपने खुतूत बगैरह की इब्तिदा में 786  लिखते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि हम एक अल्‍लाह के बजाय हरीक्रष्‍णा और अल्‍लाह दोनों को मानते हैं तो ऐसी सूरत में कलिमा तौहीद के मुन्‍कर क़रार पाते हैं. जब हमारा अकीद-ए-तौहीद ही नहीं रहा तो फिर मुसलमानियत कहां रही. हालांकि हमारे अकी़दे के मुताबिक़ हमारा सिर्फ़ एक अकेला रब अल्‍लाह है.
     अगर तुम्‍हारे नाम का अदद 420 या 92 आ जाय और नाम के बजाय यूं पुकारा जाय, ऐ 420 ! इधर आओ. तो क्‍या तुम इस बात को गवारा करोगे, हरगिज़ नहीं. क्‍योंकि बुरे अल्‍का़ब (सम्‍बोधन) से किसी को पुकराना इस्‍लामी आदाब के खि़लाफ़ है. और इसकी कुरआन में मज़म्‍मत (निंदा) की गई है, जबकि तुम्‍हारी ईमानी गै़रत इस बात को कुबूल करने के लिए तैयार नहीं है तो फिर तुम अल्‍लाह और मुहम्‍मद जैसे प्‍यारे नाम को गिनती व अदद में तब्‍दील करके बाअसे-अहतराम (आदरणीय) कैसे तसव्‍वुर करते हो? यह अल्‍लाह और मुहम्‍मद के नाम की तौहीन नहीं है तो और क्‍या है?
     ऐसे तहरीफ़ (परिवर्तन) करने वाले जा़लिम हैं और बिसमिल्‍लाहिर्रमानिर्रहीम को 786 या मुहम्‍मद के बजाय 92 और अल्‍लाह के बजाय 66 लिखना और बोलना आदाबे इस्‍लामी के खि़लाफ़ और शिर्क व बिदअ़त का काम है. लिहाजा़ अब भी वक्‍त है अल्‍लाह तआ़ला से खा़लिस तौबा कर लो और यहूदी सिफ्त मफा़द परस्‍त हज़रात के मकरो-फ़रेब में आकर अपने ईमान को गदला मत बनाओ.  (अल्‍लाह तआ़ला हमें इसकी तौफ़ीक दे, आमीन)