रविवार, 13 मई 2012

फतिहा खलफुल इमाम فاتحہ خلف الامام




"واذا قری القرآن فاستمعوا لہ وانصتوا لعلکم ترحمون" سورہ اعراف، پارہ ۹)

(الف) یہ آیت بھی اور سورہ بھی مکی ہے۔

(ب) یہاں بھی مشرکین مکہ مراد ہیں۔

(ج) یہاں بھی نماز کا کویٗ ذکر نہیں۔

(د) یہاں بھی ترک فاتحہ کا نام و نشان نہیں۔

 

(وقال الذین کفروا لا تسمعوا لھذا اقرآن والغوا فیہ لعلکم تعلمون" سورہ حم سجدہ، پ ۲۴)

الف) یہ آیت بھی اور سورہ بھی مکی ہے۔

(ب) یہاں بھی مشرکین مکہ مراد ہیں۔

(ج) یہاں بھی نماز کا کویٗ ذکر نہیں۔

(د) یہاں بھی ترک فاتحہ کا نام و نشان نہیں۔

 



नुक्‍ता यह है कि सूरह आराफ़ की इस आयत के आखिरी अल्‍फाज़ यह है ‘’ لعلکم ترحمون ‘’ शायद कि तुम पर रहम किया जाय. अल्‍लाह क्‍या यह फरमाना साफ़ दलालत करता है कि यह आयत कुफफारे मक्‍का के मुताल्लिक है शायद कि तुम पर रहम किया जाय. यह कुफफार को कहा जा सकता है जो कुरआन की तिलावत करते थे और अपने साथियों को कहते थे لا تسمعوا لھذا اقرآن والغوا فیہ" سورہ حم سجدہ ۲۶  ‘’यानी यह कुरआन मत सुनों और शोर करो’’ उनसो कहा गया कि इसकी बजाय तुम अगर गौर से सुनो और खामोश रहो तो शायद अल्‍लाह तआला तुम्‍हें हिदायत से नवाज़ दे. और यूं तुम रहमते इलाही के हक़दार बन जाओ.  वर्ना मुसलमानों पर तो अल्‍लाह तआला का रहम हो चुका है तौहीद व सुन्‍नत की नैमत मिल चुकी है और उन्‍होंने कबूल कर ली है वह तो राहे रास्‍ते पर आ चुके हैं. अब काफिरों को उम्‍मीद दिलाई जा रही है कि कुरआन हकीम सुन कर शायद तुमको हिदायत नसीब हो जाय और राहे रास्‍त को कबूल करके अल्‍लाह की रहमत के हकदार बन जाओ. अब बताओ  जो आयत सियाक़ सिबाक़ के और शाने नुजूल के ऐतबार से काफिरों के हक़ में नुजूल हुई है तुम इसे धींगा मुश्ती से मुसलमानों के हक़ में साबित कर रहे हो. अफसोस सद अफसोस जिस कौम के रहबर व रहनुमा ऐसे यहूदी सिफ्त लोग हों उनको दोजख़ से बे-फिक्र हरगिज़ न रहना चाहिए.
कुछ उलेमा इसे आम लेते हैं यानी जब भी कुरआन पढ़ा जाय, चाहे नमाज़ हो या गैर नमाज़, सबको खामोशी से कुरआन सुनने का हुकुम है और फिर वह इस उमूम से इस्‍तदलाल करते हुए जहरी नमाजों में मुक्‍तदी के सूरह फातिहा पढ़ने की ताकीद नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम से सहीह अहादीस से साबित है. इसलिए अव्‍वल तो इस आयत को सिर्फ कुफफार के मुताल्लिक़ ही समझना सही है, जैसा कि इसके मक्‍की होने से भी इसकी ताईद होती है. लेकिन इगर इसे आम समझा जाय तब भी इस उमूम से नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम ने मुक्‍तदियों को खारिज फरमा दिया और यूं कुरआन के इस उमूम के बावजूद जहरी नमाजों में मुक्‍तदियों का सूरह फातिहा पढ़ना जरूरी होगा. क्‍योंकि कुरआन के इस उमूम की यह तखतीस सहीह व क़वी अहादीस से साबित है बिना बरीं जिस तरह और बाज उमूमात कुरआनी की तख़सीस अहादीस की बुनियाद पर तसलीम की जाती है, मसलन आयत (الزانیۃ والزانی فاجلدوا" سورہ النور ۲) के उमूम से शादीशुदा जानी का इखराज और (االسارق والسارقۃ) के उमूम से ऐसे चोर का इखराज या तखसीस जिसने चौथाई दीनार से कम मालियत की चीज़ चोरी की हो या चोरी शुदा चीज़, हरज़ में रखी हो बगैरह. इसी तरह ( فاستمعوا لہ وانصتوا) के उमूमी हुकुम से मुक्‍तदी खारिज होंगे और उनके लिए जहरी नमाजों में भी सूरह फातिहा का पढ़ना जरूरी होगा, क्‍योंकि नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम ने इसकी ताकीद फरमाई है.
एक हदीस कुदसी में है अल्‍लाह तआला ने फरमाया (قسمت الصلاۃ بینی و بین عبدی) حدیث صحیح مسلم، کتاب الصلاۃ"  मैंने सलात (नमाज़) को अपने और अपने बन्‍दे के दरमियान तकसीम कर दिया है’’ मुराद सूरह फातिहा हैजिसका निस्फ हिस्‍सा अल्‍लाह तआला की हम्‍द व सना और उसकी रहमत व रूबूबियत और अदल व बादशाहत के बयान में है आर निस्‍फ हिस्‍से में दुआ व मनाजातहै जो बन्‍दा अल्‍लाह की बारगाह में करता है. इस हदीस में सूरह फातिहा को ‘नमाज़’ से ताबीर किया गया है. जिससे यह साफ़ मालूम हेाता है कि नमाज़ में इसका पढ़ा बहुत जरूरी है. चुनांचे नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम के इरशादात में इसकी खूब वजाहत कर दी गई है, फरमाया- ‘’لا صلاۃ لمن لم یقرا بفاتحۃالکتاب’’ صحیح بخاری و صحیح مسلم، کتاب الصلاۃ  यानी उस शख्‍स की नमाज नहीं जिसने सूरह फातिहा नहीं पढ़ी’’ इस हदीस में (من)  का लफ्ज़ आम है जो हर नमाजी को आम शामिल हे. मुनफरिद हो इमाम, या इमाम के पीछे मुक्‍तदी. सिर्री नमाज़ हो या जहरी, फर्ज नमाज हो या नफिल. हर नमाजी के लिए सूरह फातिहा पढ़ना जरूरी है. इस उमूम की मजीद ताईद इस हदीस से होती है जिसमें आता है कि एक मर्तबा नमाज़े फज्र में बाज़ सहाबा किराम भी नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम के साथ नमाज़ कुरआन करीम पढ़ते रहे जिसकी वजह से आप पर किरात बोझिल हो गयी, नमाज़ खतम होने के बाद जब आपने पूछा कि तुम भी साथ पढ़ते रहे हो, उन्‍होंने हां में जवाब दिया तो नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम ने फरमाया (لا تفعلوا الا بام القرآن فانھ لا صلاۃ لمن لم یقرا بھا)ابوداود، ترمذی، نسایٗ  यानी तुम ऐसा मत किया करो (यानी साथ-साथ मत पढ़ा करो) अल्‍बत्‍ता सूरह फातिहा जरूर पढ़ा करो, क्‍योंकि इसके पढ़े बगैर नमाज़ नहीं होती.’’
इसी तरह हजरत अबू हुरैरा रजिअल्‍लाहो अन्‍हु से मरवी है कि नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम फर्माया (من صلی صلوۃلم یقرافیھا بام القرآن فھی خداج ثلاثا غیر تمام) यानी जिसने बगैर सूरह फातिहा के नमाज़ पढ़ी वह नाकिस है मुकम्मिल नहीं है’’ तीन मर्तबा नबी करीम सल्‍लल्‍लाहो अलैहि वसल्‍लम ने फर्माया. हजरत अबू हुरैरा रजिअल्‍लाहो अन्‍हु से अर्ज किया गया (انا نکون وراء الامام) इमाम के पीछे भी हम नमाज़ पढ़ते हैं, उस वक्‍त क्‍या करें, हजरत अबू हुरैरा रजिअल्‍लाहो अन्‍हु  ने फर्माया (اقرا بھا فی نفسک)इमाम के पीछे तुम सूरह फातिहा अपने जी में पढ़ो (सहीह मुसलिम किताबुस्‍सलात बाब नं0 11)  मजकूरा दोनों हदीसों से वाजेह हुआ कि कुरआन मजीद में जो आता है- (واذا قری القرآن فاستمعوا لہ وانصتوا) यानी जब कुरआन पढ़ा जाय तो सुनो और खामोश रहो (सूरह आराफ़ आयत नं0 204) या हदीस (واذا قرا وانصتوا)  بشرط صحت ‘’जब इमाम किरात करे तो खामोश रहो’’ का मतलब यह है कि जहरी नमाजों में मुक्‍तदी सूरह फातिहा से पहले या बाद के अलावा बाकी किरात खामोशी से सुनें. इमाम के साथ कुरआन न पढें. या इमाम सूरह फातिहा की आयत वक्‍फों के साथ पढ़े ताकि मुक्‍तदी भी अहादीसे सहीहा के मुताबिक सूरह फातिहा पढ1 सकें, या इमाम सूरह फातिहा से पहले या बाद या सूरत के बाद इता सकता करे कि मुक्‍तदी सूरह फातिहा पढ़ लें. (सही रिवायात से किरात के बाद सकता साबित है) इस तरह आयते कुरान और अहादीस सहीहा में अल्‍हम्‍दु लिल्‍लाह कोई तआरूज नहीं रहता. दोनों पर अमल हो जाता है. जबकि सूरह फातिहा की मुमानिअत से यह बात साबित होती है कि कुरआन करीम और अहादीसे सहीहा में टकराव है और दोनों में से किसी एक पर ही अमल हो सकता है. बेक वक्‍त दोनों पर अमल मुमकिन नहीं. فنعوذ باللہ من ھذا
सूरह आराफ़ की यह आयत मजकूरा बाला नमाज़ के बारे में हरगिज़ नाजिल नहीं हुई. इसकी दलील यह है कि यह सूरह बनी इसराईल से बहुत पहले नाजिल हुई है. सूरह बनी इसराईल में मैराज का जिक्र है और सूरह आराफ़ के बाद नाजिल हुई लिहाजा साबित हुआ यह आयत ‘’ "واذا قری القرآن नमाज़ के बारे में हरगिज़ नाजिल नहीं हुई. इस आयत के मासबक़ सिलसिला ‘’ واذا لم تاتھم بایتہ قالوا ‘’ और जब तू ऐ पैगम्‍बर उनके पास मौजजा नही लाता तो (काफिर) कहते हैं तू खुद ही क्‍यों नहीं लाता कहदे कि मैं वहीय इलाही का पाबन्‍द हूं. यह (कुरआन) तुम्‍हारे रब की तरफ़ से बसीरत है और मौमिनों के लिए हिदायत व रहमत है. आगे आयत है ’ "واذا قری القرآن- लिहाजा मा-सबक़ सिलसिले से बिला शुब्‍ह साबित होता है कि यह आयत काफिरों के बारे में नाजिल हुई.
  एक बात यह कि रूकू में मिलने से रकअत हो जाती है यह इत्तिफाकी और इजमाई मसला नहीं क्‍योंकि इमाम बुखारी, हाफिज इब्‍न हजर असकलानी और इमाम बेहिकी बगैरा मुहददिसीने किराम रूकू की रकअत होने के हरगिज काइल नहीं और हजरत अबू हुरैरा रजिअल्‍लाहो अन्‍हु सहाबी रसूल का फतवा सुनिये- (من ادرک الامام فی الرکوع فلیرکع معھ ولیعد الرکعۃ) ‘’जो शख्‍स रूकू में इमाम को पाए तो उसके साथ रूके करे और बाद में इस रकअत को दोबारा पढ़ ले.’’  लिहाजा नतीला निकला कि रूकू में रकअत कतअन नहीं होती, इससे मुताल्लिक जो हदीस है वह सख्‍त जईफ़ है.
दो मिनट के लिए अगर यह मान भी लिया जाय कि ’ "واذا قری القرآنका शाने नुजूल नमाज़ के बारे में भी तस्‍लीम कर लिया जाय तो इससे सिर्फ इतना साबित होता है कि मुक्‍तदी जहरी नमाजों में जहरी किरात न पढ़ें बल्कि इमाम की किरात को सुनें. लेकिन इस आयत से यह कतअन लाजिम नहीं आता कि मुक्‍तदी इमाम के पीछे आहिस्‍ता और सकतों में इमाम के पीछे पढ़ने से किरात में मनाजिअत पैदा नहीं होती. यही वजह है कि ’ "واذا قری القرآن के बाद की आयत "واذکر ربک فی نفسک،،  फरमा कर आहिस्‍ता पढने का हुकुम दिया है. नीज़ जहरी किरात के वक्‍त आहिस्‍ता पढने का सबूत खुद फिक्‍ह हनफिया की मशहूर किताब हिदाया में मौजूद है.
उसूले फिक्‍ह में मौजूद है कि आयत ‘’ "واذا قری القرآن और आयत ‘’فقرواٗ ما تیسر من القرآن ‘’ में तआरूज है. इस लिए दोनों आयतें इस्‍तदलाल के काबिल नहीं. (नूरूल अनवार, सफा 193).



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