मंगलवार, 22 मई 2012

महफिल-ए-मीलादुन्नबी (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की शरई हैसियत


मीलादुनन्नबी की हकी़क़त: बिला शक रबीउल अव्वल का महीना आलम ए इंसानियत के लिए निहायत खैरो-बरकत का महीना है और खुसूसन (विशतः) इसकी नवीं तारीख पीर का दिन कितना ही सईद व पुर मुसर्रत का दिन है, जिसमें हमारे आखिरी नबी (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की विलादत (पैदाइश) बासआ़दत हुई, मगर नुज़ूल ‘वहीय’ का दिन भी किस क़दर अहम है कि इस दिन आप(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) को अल्लाह तआ़ला ने नबी बनाकर भेजा , फिर वह दिन किस क़दर इज्ज़्त  वाला व बा बरकत है, जिस दिन अल्लाह तआला ने आप पर दीन के कामिल होने की खुशखबरी उतारी। उसी दिन के मुताल्लिक यहूदी ने कहा था कि अगर यह दिन हमें मिला होता तो हम इसे ईद का दिन बना लेते। मगर इस अहमियत के बावजूद आपने इसे अपनी उम्मत को ज व ईद मनाने का हुक्म नहीं दिया। इलाम में तो ईद के दिन सिर्फ़ दो हैं, ईदुल फ़ित्र व ईदुलजुहा , तीसरा कोई नहीं।
 मगर अफ़सोस की आज उम्मत-मुहम्मदिया की अक्सरियत नसारा (ईसाईयों) की तक़लीद (पैरवी) करते हुए हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम की पैदाइश पर मनाये जाने वाली ईद मीलाद (क्रिस्मस-डे) की तरह ईद मीलाद की महफ़िलें मुनक्क़िद (आयोजित) करती हैं। जो मर्द-औरतों के मिलने, गाने बजाने और दीगर मुनकरात (नाजायज़ बातों ) से पुर होते है। आपकी तारीफ़ व तौसीफ़ में ऐसी क़व्वालियां, नज़्में व तक़रीरें पढ़ी जाती हैं कि मका़म ए अब्दियत व बशरियत से खारिज कर डालते हैं। और यह अकी़दा रखते हैं कि ऐसी महफ़ि़लों में हुजूर(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) खुद तशरीफ़ लाते हैं और आपकी ताजी़म और दुरूद व सलाम के लिए क़याम करते हैं, क़याम न करने वाले को गुस्ताखे़ रसूल और काफ़िर कहा जाता है। हालांकि इस मीलादुन्नबी की ताजी़म न इसलाम का कोई जुज़ है न सलफ़-सालिहीन का कोई अमल, बल्कि यह बिदअ़त होने के साथ षिर्क ए अकबर का इरतकाब (इख्तियार करना) है।

पढ़िये और सोचिये‍ : नबी(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) अपनी नुबूवत के बाद दुनियां में तेईस साल ज़िन्दा रहे और हर साल रबीउल अव्वल का महीना आता रहा, मगर न आपने खुद अपने मीलाद की कोई मजलिस मुनक्क़िद की और न ही सहाबा कराम रजिअल्लाहो अन्हुम को इसका हुक्म दिया। यहाँ तक कि आप दुनियां से रूखसत हो गये। इसी वजह से सहाबा किराम ने आपके मीलाद का जश्न नहीं मनाया। हालांकि उनको आपसे वालिहाना मुहब्बत थी और वह इत्तिबाअ़-ए-सुन्नत के सबसे बड़े पैरोकार थे। सातवीं सदी हिजरी से मीलादुन्नबी की जो महफ़िलें मुनक्क़िद (आयोजित) की जाती चली आ रही है,ं यह बिदअत और दीन में नई ईजाद शै है, क्योंकि दीन मुकम्मल हो चुका है, अल्लाह तआला का इरशाद है कि ‘‘ आज तुम्हारे लिए दीन को मुकम्मल कर दिया और तुम पर नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए बहैसियत दीन, इसलाम को पसंद फ़रमाया ’’(सूरह माइदा)।
इसके बावजूद अगर कोई महफ़िले मीलाद का आयोजन करता है तो इसका मतलब यह है कि दीन नामुकम्मल रह गया और आप(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) इन्तिका़ल फ़रमा गये या यह कि सहाबा कराम और ताबिईन के दौर में रबीउल अव्वल का महीना आता ही न हो या आता हो तो उसमें बारहबीं तारीख न आती रही हो या उन हज़रात को आंहज़रत(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) से हम जैसी अक़ी़दत व हद दर्जे की मुहब्बत न रही हो या रही हो, लेकिन बखीली या इस काम का तरीका़ मालूम न होने की वजह से इस कार-ए-खैर से महरूम रह गये हों, या फिर उन बुजु़र्गों ने इस काम को बिदअत व नाजाइज़ समझा हो , जाहिर है कि यही बात हक़ है।

तारीखे-मीलाद :  सबसे पहले इस महफ़िले मीलाद के आयोजन की बुनियाद अबू सईद कबूरी अबुल हसन अली तुर्कमानी ने 604 हिजरी में डाली, जिसका लक़ब ‘मुजफ़्फ़रूददीन’ था। इसको सुलतान सलाहुददीन ने 586 हिजरी में मौसल के क़रीब अरबल शहर के गवर्नर बनाकर भेजा था। यह बादशाह अइयाश मिज़ाज का था, गाना बजाना उसको बहुत पसंद था।

रसूल(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की आमद : आशिकाने रसूल(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) का यह अकी़दा है कि ज़िक्रे विलादत के दौरान नबी(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) खुद इस मजलिस में तशरीफ़ लाते हैं। हालांकि(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) का क़यामत से पहले अपनी क़ब्र से निकलना, किसी से मुलाका़त करना या किसी मजलिस या इज्तिमाअ़ में तशरीफ़ ले जाना हरगिज़ साबित नहीं है। बल्कि आप(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) क़यामत तक के लिए अपनी क़ब्र में मुकी़म हैं और आपकी रूह अल्लाह तआला के पास ‘आला इल्लीयीन’ में है। अल्लाह तआला का इरशाद है ‘‘ फिर तुम इसके बाद वफा़त पा जाओगे, फिर क़यामत के दिन उठाये जाओगे।’’ (सूरह मोमिनीन) आप(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया - मेरी कब्र सबसे पहले क़यामत के दिन शक़ होगी (फटेगी)।

क़याम करना :  रसूल(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) का ज़िक्रे विलादत के दौरान आपकी आमद का ख्याल करते हुए बतौर ताजी़म खड़े होकर सलातो-सलाम पढ़ना सवाब, अकी़दत और मुहब्बत का इज़हार का किया जाता है, जबकि साबित हो गया है कि मजलिस-ए-मोलूद बिदअ़त है। तो मालूम हुआ कि क़याम भी बिदअ़त है। आं हजरत(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) अपनी ज़िन्दगी में अपने लिये सहाबा किराम रजिअल्लाहो अन्हुम को क़याम करने से मना फ़रमाया था , अगर आप(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के लिये क़याम करना खैरो-बरकत का सबब होता तो इससे मना न फ़रमाते। हदीस शरीफ़ में आता है कि आपने फ़रमाया कि -मुझे देखकर खड़े न हो जाया करो, जैसा कि अजमी (गै़र अ़रबी) एक दूसरे की ताजी़म के लिये खड़े हो जाया करते हैं। (तिर्मिजी़)

उलेमा-ए-अहनाफ़ का फ़तवा :  अल्लामा रशीद अहमद गंगोही ने एक सवाल के जवाब में लिखा है कि महफ़िल ए मीलाद के आयोजन व क़याम ‘क़ुरून-ए-सुलासा’ से साबित नहीं है। यह हमारे ज़माना  की बिदअ़त व मुनकर है, शरअ़न कोई सूरत जवाज़ (जाइज़) होने की नहीं हो सकती है।
 शेख़ ताजुददीन फ़ाकिहानी ने अपनी किताब में लिखा है कि यह मीलाद बातिल परस्त लोगों की ईजाद करदा बिदअ़त है और पेट पुजारियों के लिए एक मिशन है।
‘फ़तवा बजा़रिया’ में है कि जो शख्स बुजुर्गों की रूह को हाज़िर-नाज़िर समझे, वह काफ़िर है।
अल्लाह त से दुआ है कि वह तमाम मुसलमानों को दीन को हकी़की़ रूप से समझने और बिदअ़त व षिर्क से बचने की तौफ़ीक़ अ़ता़ फ़रमाए। आमीन
तहकी़क एवं सीरत पर प्रमाणिक किता
बों ‘‘अर्रहीकुल मख़तूम’’ बगैरह के मुताबिक हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की विलादत मुबारका 9 रबीउल अव्वल को हुई।



मिस्र के मशहूर हेअतदां महमूद पाशा फ़लकी ने दलाइल से साबित किया है कि आप (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की विलादत 9 रबीउल अव्‍वल बरोज़ पीर मुताबिक़ 22 अप्रेल 571ई0 में हुई थी.(सीरतुन्‍नबी- शिबली जिल्‍द-1)
अगर 12 रबीउल अव्‍वल को आप (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की विलादत बासआदत तस्‍लीम करली जाय तो 12 रबीउल अव्‍वल ही आप(सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) का यौमे वफ़ात का दिन है जो कि बगै़र किसी इख्तिलाफ़ के सबके नज़दीक मुत्‍तफि़क़ अलैह है.
दुनियावी कायदे के ऐतबार से अगर कोई शख्‍स किसी तारीख को पैदा हो और फिर इत्तिफ़ाक़ से उसी तारीख़ को फौ़त हो जाय तो अज़ीज़ व अक़ारिब उस दिन खुशी नहीं मनाते. जबकि शरियते मुहम्‍मदी में कतई तौर पर किसी की पैदाइश या वफ़ात का दिन मनाने का कोई सबूत नहीं. दूसरी अक़ली दलील यह भी है कि अगर मान लिया जाय कि किसी की क़मरी तारीख पैदाइश 30 है और अगले साल वह माह 29 तारीख़ को ही मुकम्‍मल हो जाय तो फिर उस माह में 30 तारीख के न आने के सबब वह अपनी तारीख पैदाइश किस तरह मनायेगा? हक़ीक़त तो यह है कि हम 12 रबीउल अव्‍वल के मुताल्लिक़ आज तक पुराने बुजुर्गों से ‘’बारह बफ़ात’’ का लफ़्ज़ ही सुनते आये हैं और पुराने बुजुर्ग अब भी 12 रबीउल अव्‍वल को ‘’बारह वफ़ात’’ ही कहते हैं.
हमें रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) के साथ यह कैसी मुहब्‍बत है कि हम उस दिन जश्‍न मनाते हैं जिस दिन रसूल अकरम (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने वफ़ात पाई. जिस दिन सारा मदीना सौगवार था, अहले बेत और सहाबा किराम (रजिअल्‍लाहु अन्‍हुम)  पर ग़मों और कर्ब के पहाड़ टूट पड़े. हज़रत अनस  (रजिअल्‍लाहु अन्‍हु) का बयान है कि जिस दिन रसूलुल्‍ल्लाह (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) हमारे हां तशरीफ़ लाये उससे बहतर और ताबनाक दिन मैंने कभी नहीं देखा और जिस दिन वफ़ात पाई उससे ज्‍यादा क़बीह और तारीक दिन भी मैंने कभी नहीं देखा (मिश्‍कात)

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